आदिवासी, दो शब्दों से मिलकर बना है- 'आदि' व 'वासी', जिसका शाब्दिक अर्थ होता है आदिकाल से इस भारत देश में निवास करने वाले लोग।
वर्ष 2011 जनगणना के अनुसार भारत में आदिवासी लोगों की जनसंख्या कुल संख्या का 8.6 प्रतिशत हैं। आदिवासियों के लिए भारतीय संविधान में 'अनुसूचित जनजाति' शब्द का उपयोग किया गया है। भारत में आदिवासी समुदायों में मुख्य रूप से मीणा ,भील मीणा,गोंड, हल्बा ,कोल, भील,नायक, मुण्डा, ,खड़िया, बोडो, सहरिया, संथाल ,पारधी, असुर, भिलाला, भूमिज, हो, उरांव, बिरहोर आदि आते हैं।
आदिवासी किसे कहते है?
आदिवासी शब्द आदि और वासी दो शब्दों से मिलकर बना है। जिसमें आदि का अर्थ है - मूल तथा वासी का अर्थ है - निवासी ।
इस प्रकार 'आदिवासी' शब्द का शाब्दिक अर्थ हुआ मूल निवासी । 'आदिवासी' शब्द के लिए अंग्रेजी में एबोरिजिनल शब्द का प्रयोग किया जाता है, जो आदिकाल से या प्रारम्भ से रहने वाले व्यक्ति को संदर्भित करता है।
आदिवासी शब्द में सभ्यता, संस्कृति और विकास की अवधारणाएं जुड़ी हुई हैं।
आज वनवासी या आदिवासी शब्द का प्रयोग विशिष्ट पर्यावरण में रहने वाले, जल-जंगल के समीप रहने वाले, विशेष भाषा का प्रयोग करने वाले, अपने खास समाज व विशिष्ट जीवन पद्धति में जीविका निर्वहन करने वाले, सदियों से जंगलों-पहाड़ों, कंदराओं व झाड़ियों में जीवन गुजारने वाले, अपनी सस्कृति, सभ्यता और धार्मिक विरासत को संजोकर रखने वाले, प्रकृति के माध्यम से अपना गुजर-बसर करने वाले समूह वाले तथा प्रायः अक्षर ज्ञान से रहित मानव समूह आदिवासी के अंतर्गत रखे जाते हैं।
आदिवासी की परिभाषाएँ
रामचंद्र वर्मा के अनुसार - “वे जातियाँ जो आरंभ से ही जंगलों में निवास करती हैं। प्राचीन मान्यताओं एवं संस्कारों का पालन करती हैं, उन्हें आदिवासी कहते हैं।”
रामकुमार वर्मा के शब्दों में - “आदिम मान्यताओं का पालन करनेवाली जातियाँ जो शिक्षा एवं शहरी संस्कृति से दूर है वे आदिवासी हैं।”
देवेन्द्र सत्यार्थी के अनुसार – “अपनी मूल मान्यताओं को लेकर सजग रहनेवाले जंगलों के नजदीक प्रकृति से प्रत्यक्ष संबंध रखने वाले लोग आदिवासी हैं।
आदिवासी अस्मितामूलक विमर्श
आदिवासी अस्मितामूलक विमर्श के अंतर्गत आदिवासी समाज की पहचान, उनके अस्तित्व से जुड़े संकटों और उनके ख़िलाफ़ चल रहे प्रतिरोध को साहित्य के माध्यम से दिखाने का काम किया जाता है। यह विमर्श देश के मूल निवासियों के वंशजों के साथ होने वाले भेदभाव का विरोध करता है।
आदिवासी हजारों साल से जंगलों में रह रहे हैं, वह मुख्यधारा से कभी जुड़ नहीं पाए है। वर्तमान समय में भी उनकी स्थिति जस की तस बनी हुई है। देश के विकास के क्षेत्र में भी आदिवासियों की भूमिका को स्वीकारा नहीं गया है, जबकि पिछले कुछ वर्षों में लाखों आदिवासियों का शहरों की तरफ पलायन हुआ है, वह मजदूरी के क्षेत्र में कार्यरत हुए हैं तथा अन्य बहुत-से क्षेत्रों में कार्य कर देश के विकास में योगदान दे रहे हैं, लेकिन आदिवासियों को सदैव हाशिये पर ही रखा गया है।
वर्तमान समय में उन्हें उनकी जमीनों से बेदखल किया जा रहा है। जबरन उनसे उनकी जमीन छीनकर पूँजीपतियों को सौंपी जा रही है, अपनी जमीन की रक्षा के लिए जब उन्होंने हथियार उठाए तो उन्हें नक्सली कह दिया गया।
आदिवासियों की भाषा, संस्कृति सभ्यता को कोई महत्त्व नहीं दिया जा रहा है। मीडिया द्वारा भी आदिवासियों की केवल दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति दिखाई जाती है। आजादी की लड़ाई में उनके द्वारा किए गए 'पहाड़िया विद्रोह' और 'नागारानी संघर्ष' तक भारत के विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों में हुए विद्रोह को पुस्तकों में कोई स्थान नहीं मिला है न ही कभी पत्र-पत्रिकाओं में इनका जिक्र किया जाता है।
हजारों सालों के शोषण व संघर्ष को झेलते हुए आदिवासी वर्तमान समय में सरकार के समक्ष अपनी अस्मिता के सवाल रख रहे हैं। आदिवासी अस्तित्व और अस्मिता के संकट को देखते हुए उसका प्रतिरोध स्वाभाविक है। सामाजिक, राजनीतिक प्रतिरोध के अलावा साहित्य की, 'कब तक पुकारू रांगेय राघव की, देवेन्द्र सत्यार्थी, 'रथ के पहिये' आदि की रचना में आदिवासी अस्मिता के स्वर है।।
आदिवासी समाज-परम्परा एवं इतिहास
आदिवासी समाज वह है जो आदिम युग से ही अपने मूल प्रदेशों, जंगलों, पहाड़ों, कंदराओं व झाड़ियों के बीच अपना जीवन निर्वाह करता रहा है। अलग-अलग जगहों पर निवास करने के कारण प्रायः सभी जनजातीय समाज के पहनाव-ओढ़ाव, बोल-चाल, हाव-भाव, आचार-विचार रीति-रि रहन-सहन, संस्कृति एवं धार्मिक क्रिया कलापों में पर्याप्त भिन्नताएँ देखने को मिलती है।
वैवाहिक आयोजन, तीज-त्योहारों, उत्सवों एवं देवी-देवताओं की आराधना आदि जैसे क्रियाकलाप मूलतः आदिवासी समाज के अंतर्गत भी देखने को मिलते हैं, लेकिन उसका स्वरूप कुछ बदला हुआ दिखाई पड़ता है। इस समाज में मृत्यु के समय की जाने वाली प्रथाओं व परम्पराओं का स्वरूप शिष्ट समाज से बहुत कुछ अलग दिखाई पडता है। यमराज को मृत्यु के देवता मानने की प्रवृत्ति आदिवासी समाज में भी प्रचलित है।
जनजातीय समुदाय का समाज, जीवन, परम्पराएं आदि समय के साथ गतिशील रही हैं। हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आदि धर्मियों के सम्पर्क स्थापित होने के कारण इन जनजातियों में आत्मसातीकरण और नए संस्कारों, परम्पराओं की प्रक्रिया अग्रेषित होती रही।
धार्मिक, सांस्कृतिक मान्यताओं के संक्रमण से गुजरते हुए उनमें अनेक बदलाव हुए इन बदलावों के चलते उनकी आस्था, विश्वास और परम्पराओं में भी परिवर्तन देखने को मिलते हैं। इसके बावजूद भी वे अपने जल, जंगल और जमीन से आज भी पूरी तरह जुड़े रहना चाहते हैं।
आज राजनीति के नाम पर जब उनके अधिकारों का हनन किया जा रहा है जब उनके अस्तित्व को मिटाने की कोशिश की जा रही है, जब उनकी संस्कृति, सभ्यता को कुचला जा रहा है, जब उन्हें जल, जंगल, जमीन से बेदखल किया जा रहा है तब यह समान अपने अधिकारों को पाने हेतु अपने पूर्वजों का स्मरण कर हिंसात्मक रवैया अपनाता हुआ दिखाई पड़ता है; तो ऐसे में सरकार इन्हें आतंकवादी, नस्लवादी, मावोवादी कहकर अपराधी घोषित करती है और उनके साथ अमानवीय व्यवहार करती हुई नज़र आती है।
आदिवासी आंदोलन
आदिवासी लोग भारत के मूल निवासी है, इनका शोषण सदियों से होता रहा है। भारत में आर्यों के आने के समय से ही आदिवासी संघर्षरत हैं। जिस कारण यह आन्दोलन करने के लिए मजबूर हुए।
आदिवासी समाज के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी कहे जाने वाले बाबा तिलक मांझी जी का नाम बड़े ही आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है। 1890 ई. में बड़े भीषण अकाल के समय तिलक मांझी जी ने न केवल जन कल्याण हेतु लोगों की मदद की बल्कि, उन्होंने अपने समाज को जागरुक बनाने एवं उनके साथ हो रहे अभद्रतापूर्ण व्यवहार को दूर करने हेतु अथक प्रयास भी किया, जो अंग्रेजों के लिए नागवार सा गुजरा।
अंग्रेजों के भयावह प्रक्कोप से तिलक जी ने आंदोलन के माध्यम से बचने का संकेत दिया तबसे आंदोलनों का एक लम्बा सिलसिला इस क्षेत्र में दिखाई पड़ता है।
इस क्रम में 1967-68 का भग आंदोलन, 1893 का अहोम आंदोलन, 1903 का विरसा मुँडा का विद्रोह, 1914-47 तक का ता भगत आंदोलन, 1920-2000 का झारखंड आंदो., 1930 भील सुधार आंदोलन, 1941 गोंड असहयोग आंदो., 1952 का आदि समाज आंदोलन, 1967 नक्सलबाड़ी आंदोलन, 1978 का जंगल आंदोलन व 1993 का नर्मदा बचाओ आंदोलन आदि जैसे कछ प्रमख आंदोलन दिखलाई पडते हैं।
लगभग ये सभी आंदोलन अपने खोए हुए जल, जंगल, जमीन को प्राप्त करने के लिए किए जाते रहे हैं, जिसमें बिरसा मुंडा आंदोलन की भूमिका प्रमुख रही है।
अंग्रेजों और जमींदारों के द्वारा जो शोषण हुआ, वह इतना अमानवीय था जिसकी कल्पना भी दुखदाई प्रतीत होती है। आदिवासी किसानों से अधिक लगाम लेना, उनसे जबरन मनमाना कार्य करवाना, उनकी स्त्रियों, बेटियो के साथ गलत व्यवहार करना, उन्हें फसलों, फलों एवं जंगली लकड़ियों के लिए टैक्स देने के लिए मजबूर करना आदि जैसे अनैतिक कार्य देखने को मिलते हैं।
आदिवासी किसानों से अधिक लगान वसूलने एवं उसकी दर हर वर्ष मनमाने ढंग से बढ़ाने के कारण बिरसा मुंडा ने इसके खिलाफ संघर्ष और विद्रोह करना ही उचित समझा। वे इस आंदोलन में हिंसात्मक रवैया अपनाने के कारण पुलिस की गोलियों का शिकार हुए।
आदिवासी जीवन निर्वाह और सस्कृति
आदिवासी संस्कृति, कला, परम्परा और समाज उनका अपना रहा है। बड़े शहरों, महानगरों और वैभवपूर्ण जीवन-शैली से उनका कोई संबंध नहीं रहा। उनका जन-जीवन सामान्य रूप से प्रकृति पर निर्भर था। इसीलिए वह प्रकृति को न केवल अपने जीवन में संजोया हुआ पाता है बल्कि उसके साथ लयात्मकता, संगीतात्मकता और आत्मीयता को जीना उसकी जीवन शैली ही, उसकी संस्कृति है।
यह समाज सामूहिक समाज होता है। यहाँ किसी भी प्रकार के उत्सव, त्योहार, कार्यक्रम आदि सामूहिक रूप से ही किए जाते हैं। प्रचलित हिन्दू धर्म के त्योहारों जैसा इनके यहाँ कोई रिवाज नहीं होता। और ना ही इनके यहां ढोंग, पाखण्ड अथवा कर्मकाण्ड ही दिखाई पड़ता है।
इनके सभी धार्मिक या सामाजिक कार्यक्रम प्रकृति को केन्द्र में रखकर किए जाते हैं। इनके देवता प्रक्रति सर्जक और संरक्षण करने वाले होते हैं; इसीलिए ये प्रकृति पूजक होते हैं। प्रत्येक क्रियाकलापों पर (चाहे वह दैन्यदिंनी हो अथवा किसी प्रयोजन पर किया जाने वाला हो) इस समाज में सभी एक दूसरे का सहयोग करते हुए नजर आते हैं और आपसी सहयोग की भावना रखते हुए कार्य करते हैं, इसीलिए इनमें आपसी प्रेम, सद्भाव, मिलनसार प्रवृति एवं स्नेहता का भाव दिखाई पड़ता है। लगभग सभी आदिवासी कलाप्रेमी और प्रकृति प्रेमी होते हैं। इनके यहाँ स्त्रियाँ जंगली लकड़ियों के इस्तेमाल से कई प्रकार के आभूषण की वस्तुएं तैयार करती हैं। पुरुष लोग कृषि व लकड़ी की
कटाई करना तथा फलों का बाजार में बेचकर के अपना व अपने परिवार का जीवन निर्वहन करते है। ये लोग अपने पूरे शरीर पर गोदना गोदवाना शुभ मानते हैं।
बैगा जनजाति में झाड़-फूंक आदि बिमारियों का इलाज करने की प्रथा भी दिखाई पड़ती है। इनकी भाषा, बोली, लोक कला, नृत्य शैली और रीति-रिवाज आदि सभी प्रकृति के अत्यन्त करीब होता है।
आदिवासीयों का जीवन कबीलाई, घूमंतू और वनवासी रहा है। इसीलिए वे पहाड़ी, जंगलों, कंदराओं, झाड़ियों एवं गुफाओं में जीवन व्यतीत करना स्वयं को सौभाग्यशाली समझते हैं।
लेकिन उन्हें आज की आधुनिकतावादी शैली से स्वयं को जोड़ पाना पसंद नहीं है। आज एक ओर जहां अपने जन जीवन की त्रासदी, जल-जंगल-जमीन की समस्या और विस्थापन, पुनर्वास, रोजगार, लघु व्यवसाय आदि जैसे चमक-दमक के चकाचौंध के चक्कर में स्वयं को उलझा हुआ पाया रहा है।
आज आदिवासी अपने अस्तित्व की पहचान पाने के लिए लड़ रहा है। इसमें सरकार, प्रशास अधिकारी, जमीदार, ठेकेदार, खनन माफिया आदि उनकी जिंदगी को बाधा डालते हुए दिखाई पर हैं। इन सब के बावजूद वह निरंतर संघर्ष करते हुए आज न केवल अपनी पहचान को स्थापित में लगा हुआ है बल्कि अपनी खोई हुई संस्कृति, अपनी सभ्यता तथा अपनी पहचान को खोती जा रही है।
आदिवासी विमर्श और दलित विमर्श में अंतर है।
आदिवासी साहित्य में वर्ण व्यवस्था और मुख्यधारा के समाज में उपजी समस्याओं से इतर जंगल, विस्थापन और बाहरी लोगों की घुसपैठ आदि मुख्य विषय रहता है जबकि वहीं दलित दलित साहित्य में वर्ण व्यवास्था, ज्ञाति-पाति का वंश, छुआ-छूत, अपमान एवं अमानवीय शौषण का चित्रण दिखाई पड़ता है। चूंकि दोनों समाज में परस्पर शोषण की समानता देखने को मिलती है, इसीलिए ये अस्मितामूलक विमर्श के मुख्य बिंदु बने हुए हैं।
आदिवासी विमर्श से संबंधी महत्वपूर्ण तथ्य
- आदिवासियों को स्वदेशी लोग अथवा मूलनिवासी के नाम से भी जाना जाता है।
- भारतीय संविधान में इन्हें अनुसूचित जनजाति नाम दिया गया है।
- इनकी अपनी संस्कृति, धर्म, भाषा व नृजातीय पहचान होती है।
- आदिवासी ने हमेशा से प्रकृति के पूजा व इसे संरक्षित किया हैं।
- भारत में आदिवासी या अनुसूचित नजजाति मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उड़ीसा, झारखंड और पूर्वोत्तर के राज्यों निवास करती हैं।
- भारत की जनसंख्या का लगभग 8.6% (10 करोड़) हिस्सा आदिवासियों का है।
- पुरातन लेखों में आदिवासियों को अत्विका कहा गया है।
- स्वदेशी आबादी पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह (WGIP) की पहली बैठक 9 अगस्त 1982 को हुई थी और इस दिनांक को अब विश्व आदिवासी दिवस के रूप में मनाया जाता है।
आदिवासी साहित्य
1. आदिवासी उपन्यास (Novels)
- वर्धा की धरती - भीमसेन कौरव
- झरने के किनारे - शंकर गुहा नियोगी
- बस्तर की कहानी - रवींद्र कश्यप
- मासूम - जयंत महापात्र
- कंपकंपाती दुनिया - गिरीश पंकज
- विनाश की ओर - अमित शर्मा
- कुलमानी की फसल - कमला पाटी
- नर्मदा की गोदी - राजेंद्र यादव
- आदिवासी जीवन की कहानी - लक्ष्मी कुमारी
- धरती का पुत्र - वीरेंद्र सिंह
2. आदिवासी नाटक (Naatak)
- आदिवासी राज - रामनाथ तिवारी
- बस्तर की आवाज - शंकर गुहा नियोगी
- धरती का पुत्र - भीमसेन कौरव
- मांझी -गिरीश पंकज
- नर्मदा - राजेन्द्र यादव
- लौट आओ - कमला पाटी
- वनवास - गोविंद ठाकुर
- विहंगम यात्रा - सुरेश कुमार सिंह
- सिंहासन - जयंत महापात्र
- आदिवासी संघर्ष - अर्जुन कुमार
3. आदिवासी आत्मकथा (Autobiographies)
- मुझे बस्तर चाहिए - दरुणा आचार्य
- आदिवासी और मैं - कृष्णा राम
- मैं आदिवासी हूँ - नरेंद्र कुमार
- बस्तर की आत्मकथा - रामनाथ तिवारी
- शोषण के खिलाफ - राजेन्द्र कुमारी
- किसान और आदिवासी - मूलचंद ठाकुर
- आदिवासी जीवन की सच्चाई - शंकर रावत
- जंगलों का जीवन - विवेक शर्मा
- अपने समाज की कहानी - दिलीप कुमार
- मेरे आदिवासी समाज की पहचान - संतोष सिंह
4. आदिवासी कविता (Poems)
- धरती अबवा, पानी जाववा - लक्ष्मी कुमारी
- आदिवासी राग - गोविंद ठाकुर
- वो गाँव का आदमी - अब्दुल करीम
- माझी धरती - सिंह महेंद्र
- धरती की आवाज - राजेंद्र यादव
- सतह पर जीवन - धर्मनाथ पवार
- झारखंडी कविता - राजेश कुमार
- मुझे जंगल चाहिए - अर्जुन प्रसाद
- आदिवासी गीत - जयकांत यादव
- धरती के बेटे - धर्मवीर रावत
5. आदिवासी कहानी (Short Stories)
- गोलू और मंझी - भीमलाल गुप्ता
- कुलमानी की फसल - शंकर रावत
- आदिवासी गाँव की कहानियाँ - संतोष कुमार सिंह
- रानी की यात्रा - कमला पाटी
- स्मृति के पन्ने - अमित कुमार
- झारखंडी यात्रा -जयंत ठाकुर
- बिना नाम की कहानी -जगत पटनायक
- आदिवासी जीवन के रंग - विजय चौधरी
- आदिवासी की पहचान - सुरेश यादव
- धरती का पुत्र - दीपक कुमारी