हिन्दी नवजागरण

नवजागरण शब्‍द का अर्थ है - “नये रूप से जागना” अर्थात भारतीय साहित्‍य के संबंध में हिन्दी प्रदेशों में आए सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र के जागरण से है। अर्थात हिन्‍दी का नये रूप में जागरण होना ही हिन्‍दी जागरण है। 
हिंदी नवजागरण pdf

    नवजागरण का इतिहास 

    जिस तरह यूरोप के पश्चिमी देशों में यूनानी भाषा और साहित्य का प्रभाव पड़ा, उसकी प्रतिक्रिया में लोग अपनी भाषा की ओर भी मुड़े, उसी तरह इस पुनर्जागरण में धर्म और नए ज्ञान-विज्ञान की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। भारत में नवजागरण का संबंध भी भाषा और धर्म से रहा है।


    यहाँ पर पहला नवजागरण महात्मा गौतम बुद्ध के आविर्भाव के साथ आया। बुद्ध ने पुरानी जड़वादी परंपराओं को तोड़ कर मनुष्य-मनुष्य के बीच के भेद को मिटाया। उन्होंने संस्कृत भाषा के स्थान पर जनभाषा पालि में उपदेश देना प्रारंभ किया।

    दूसरा नवजागरण भक्तिकाल में दिखाई पड़ता है। उत्तर भारत में देशी भाषाओं के उदय का यही समय है। इस आंदोलन का मूलाधार भी धर्म ही है, यद्यपि निर्गुण पंथियों ने धर्म की जातिवादी संकीर्णताओं और बाह्याडंबरों पर गहरा प्रहार किया।

    कुछ विद्वान इस्लाम के आगमन को भारतीय इतिहास का पहला नवजागरण मानते हैं जबकि कुछ महात्मा बुद्ध के आविर्भाव को। पहली दृष्टि के अनुसार 19वीं सदी का नवजागरण भारतीय इतिहास का दूसरा नवजागरण है व दूसरी दृष्टि के अनुसार वह तीसरा नवजागरण है। जबकि हिंदी नवजागरण का संंबंध सन् 1857 की क्रांति से है। 

    हिन्दी नवजागरण

    हिन्दी नवजागरण से अभिप्राय भारत के हिन्दी प्रदेशों में आए सांस्कृतिक सामाजिक, राजनीतिक जागरण से है। हिन्दी नवजागरण का प्रारम्भ 1857 के विद्रोह (प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम) के पश्चात् माना जाता है। इसे तीन चरणों में बाँटा गया -

    1. प्रथम चरण - 1857 का महाविद्रोह था।

    2. दूसरा चरण - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के जन्म से लेकर भारतेन्दु युग को माना गया।

    3. तीसरा चरण - महावीरप्रसाद द्विवेदी की 'सरस्वती' पत्रिका से माना गया।

    भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के आगमन को हिन्दी में नवजागरण काल के रूप में देखा गया। इस युग को नवजागरण नाम देने वाले 'डॉ. रामविलास शर्मा' हैं। 

    हिंदी नवजागरण पहला अनुभव 

    नवजागरण का पहला अनुभव बंगाल ने किया। राजा राममोहन राय ने सामाजिक सुधार के कार्यों का प्रारम्भ बंगाल से किया। तत्पश्चात सारा देश आधुनिकता से अवगत हुआ। राजा राममोहन राय ने भारत में आधुनिकता की नींव रखी। हिन्दी नवजागरण का सूत्रपात भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने किया। हिन्दी नवजागरण की शुरुआत भारतेन्दु के इस कथन से मानी जाती है कि "सन् 1873 में हिन्दी नई चाल में ढली।"

    हिन्दी नवजागरण के विकास के चरण

    1. प्रथम चरण - 1857 का महाविद्रोह

    भारत में सन् 1857 का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम विद्रोह अंग्रेजी शासन को पूर्णता से उखाड़ फेंकने के लिए किया गया। भारतीय अंग्रेजी राज के नकारात्मक पक्ष को स्वीकार नहीं करना चाहते थे चाहे वह सभ्यता से सम्बन्धित हो या भाषा से। 

    पुरुषोत्तम अग्रवाल सन् 1857 के विद्रोह को हिन्दी नवजागरण का पहला चरण नहीं मानते थे। वे रामविलास शर्मा के इस तर्क से सहमत नहीं थे कि भारतेन्दु युग हिन्दी नवजागरण का दूसरा चरण है। पुरुषोत्तम अग्रवाल मानते हैं कि सन् 1857 के विद्रोह को हिन्दी नवजागरण की निरन्तरता में देखना सही नहीं है।

    2. दूसरा चरण - भारतेंदु और हिन्दी नवजागरण

    हिन्दी का विकास क्रम भारतेन्दु हरिश्चन्द्र युगीन साहित्य से होता हुआ वर्तमान समय में भी गतिमान है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के निबन्ध, नाटको, काव्य व अन्य विधाओं को हिन्दी के विकास का चरण माना जाता है। उनकी रचनाएँ भाषा के क्षेत्र में तो प्रशंसनीय कार्य कर ही रही थीं, साथ ही वह देश को नवजागरण से भी अवगत करा रही थीं। वह राष्ट्र को हर प्रकार से सजग करना चाहते थे, वह अपनी सभ्यता, संस्कृति, भाषा की उन्नति में विश्वास करते थे। हिन्दी नवजागरण के क्षेत्र में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का स्थान महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

    3. तीसरा चरण - महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण

    भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पश्चात् हिन्दी नवजागरण के क्षेत्र में महावीर प्रसाद द्विवेदी का स्थान अग्रणी है। द्विवेदी जी ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के हिन्दी नवजागरण सम्बन्धी विचारों व चेतना को और अधिक मजबूती से साहित्यिक क्षेत्र में रखा। द्विवेदी जी ने वर्ष 1903 में 'सरस्वती' पत्रिका का कार्यभार सँभाला, उन्होंने पत्रिका के माध्यम से हिन्दी नवजागरण को दिशा देने का कार्य किया व भाषा संस्कारों को कुशलता प्रदान की।

    द्विवेदी जी न केवल स्वयं हिन्दी भाषा के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे थे, अपितु उनसे बहुत से प्रख्यात लेखक भी प्रेरित थे, जिन्होंने हिन्दी के विकास क्रम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनमें हजारी प्रसाद द्विवेदी, भगवतशरण उपाध्याय, रामविलास शर्मा आदि हैं। द्विवेदी जी व अन्य सभी लेखक बहुभाषाविद् एवं बहुज्ञ थे और विज्ञान एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण को नवजागरण के लिए महत्त्वपूर्ण समझते थे। इन्होंने हिन्दी भाषा के साथ देश में भी नवजागरण के स्वर को प्रखरता प्रदान की। इन सभी के प्रयासों से हिन्दी नवजागरण अपने आयाम तक पहुँच सका।

    हिन्दी साहित्य पर तत्कालीन परिस्थितियों के प्रभाव

    आधुनिक हिन्दी साहित्य में भक्ति आन्दोलन के प्रभाव को महत्त्वपूर्ण माना गया है। आधुनिक हिन्दी साहित्य पर भक्ति आन्दोलन के साथ-साथ अंग्रेज़ी, साहित्य का भी प्रभाव देखने को मिलता है। तत्कालीन समय में भारतेन्दु और भारतेन्दु मण्डल के लेखकों ने नवीन विचारधारा के अन्तर्गत अंग्रेज़ी राज्य की चुनौतियों को राजनीतिक से अधिक सांस्कृतिक माना। इन सभी साहित्यकारों ने अपनी लेखनी के माध्यम से स्वदेशी वस्तुओं, उद्योग-धन्धों एवं स्वदेशी भाषा की वकालत की।

    रामविलास शर्मा ने लिखा है कि हिन्दी नवजागरण में अंग्रेज़ी शिक्षा और पश्चिमी ज्ञान की कोई उल्लेखनीय भूमिका नहीं रही। थोड़ी रियायत देते हुए उन्होंने ये जरूर जोर दिया है कि अंग्रेजी साहित्य की मानवतावादी और प्रगतिशील परम्परा रही है और उनसे सीखने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन आधुनिक हिन्दी साहित्य की गम्भीरता से पड़ताल करने पर ये बात स्पष्ट हो जाती है, कि उसकी मूल प्रेरणा में अंग्रेजी साहित्य ही रहा है।

    हिन्दी साहित्य पर नवजागरण काल में अनेक प्रभाव देखने को मिले, भारतेन्दु व द्विवेदी जी की कृतियों पर जागरण काल का प्रभाव विशेषतः देखने को मिला। भारतेन्दु के नाटक, निबन्धों व द्विवेदी जी की सरस्वती पत्रिका पर नवजागरण कालीन समय का प्रभाव रहा।

    यह भी देखें 👇

    हिन्दी नवजागरण की समस्याएँ

    हिन्दी नवजागरण का एक अहम बिन्दु उसकी संकुचित साम्प्रदायिकता है, क्योंकि इसके केन्द्र में हिन्दी और हिन्दू हैं।

    डॉ. नामवर सिंह के अनसार, "हिन्दी प्रदेश के नवजागरण के सम्मुख यह बहुत गम्भीर प्रश्न है कि यहाँ का नवजागरण हिन्दू-मुस्लिम दो धाराओं में विभक्त हो गया? यह प्रश्न इसलिए भी गम्भीर है कि बंगाल का नवजागरण इस प्रकार विभक्त नहीं हुआ। आश्चर्य की बात यह है कि हिन्दी-प्रदेश का नवजागरण धर्म, इतिहास, भाषा सभी स्तरों पर, दो टुकड़ों में बँट गया।"

    डॉ. नामवर जी के उद्धरण से स्पष्ट है कि तत्कालीन उत्तर भारतीय समाज दो धार्मिक संगठनों में विभाजित होने लगा था, जिसके लिए उत्तरी भारत की तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक परिस्थितियाँ उत्तरदायी थी। परिणामतः हिन्दी प्रदेश में भाषायी द्वन्द्व, हिन्दी-उर्दू विवाद, नागरी सुधार आन्दोलन का जन्म हुआ।

    भारतेन्दुयुगीन साहित्य मे भी कुछ समस्याएँ उत्पन्न हुई, इसमें उर्दू परम्परा में लिखे गए साहित्य की चर्चा नहीं हुई है। भारतेन्दुयुगीन हिन्दी नवजागरण की समस्या यह है कि उसने हिन्दी का एक सही रूप तय कर बाकी रूपों को अवैध घोषित कर दिया और अध्ययन पर बल नहीं दिया। वास्तव में हिन्दी को नई चाल में ढलने से पूर्व उर्दू में साहित्य लिखना प्रारम्भ हो चुका था, इसलिए हिन्दी नवजागरण की चर्चा के समय उर्दू में लिखे साहित्य की चर्चा का होना आवश्यक है।

    जो भाषाएँ, बोलियाँ सैकड़ों वर्षों से उपयोग में थीं, उन्हें भिन्न कर पाना सरल कार्य नहीं था। हिन्दी के साथ-साथ फारसी और उर्दू का भी विकास होता चला गया, जिससे हिन्दी कई भागों में बँट गई। हिन्दी का एक रूप पूरे राष्ट्र में स्वीकार्य नहीं था। उर्दू परम्परा के साहित्य को हिन्दी से भिन्न करने के पश्चात् भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को यह आभास था कि उर्दू शायरी परम्परा से भिन्न, खड़ी बोली हिन्दी में लेखन सरल नहीं होगा।

    यह तर्क सत्य है कि हिन्दी से उर्दू को अलग करने के पश्चात् भी भारतेन्दु उर्दू में 'रसा' नाम से कविता लिखते थे और वह हिन्दी के समर्थक होने के बावजूद ब्रज में अधिकतर कविताएँ लिखते थे। इन प्रसंगों से हिन्दी क्षेत्र की भाषायी मानचित्र की जटिलता को समझा जा सकता है।

    भारतेन्दु की विरासत को आगे बढ़ाते हुए द्विवेदी जी द्वन्द्व की स्थिति में थे। वह और सभी विद्वान् यह परिकल्पना कर रहे थे कि राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्रवाद कैसे स्थापित होगा। भारत पश्चिमी राष्ट्रों की तुलना में अलग था। यहाँ पश्चिमी राष्ट्रों के समान एक भाषा नहीं बोली जाती थी, लेकिन हिन्दी का प्रयोग सबसे अधिक लोगों द्वारा किया जाता था।

    हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए ऐसी हिन्दी की परिकल्पना हुई, जिससे क्षेत्रीय बोलियों व हिन्दी के विविध रूपों के लिए स्थान नहीं बचा। एक ही कार्य के लिए हिन्दी के भिन्न-भिन्न उपकरणों का इस्तेमाल हुआ।

    हिन्दी नवजागरण के प्रेरक तत्त्व

    हिन्दी नवजागरण को राष्ट्रीय भावना के साथ जोड़ा जाता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र व द्विवेदी जी की रचनाओं पर भी तत्कालीन परिस्थितियों के प्रभाव पड़े हैं। नवजागरण के तीसरे दौर के रूप में डॉ. रामविलास शर्मा ने द्विवेदी जी व उनके सहयोगियों के विचारों का वर्णन किया है। 'सरस्वती' पत्रिका में भारत के अतिरिक्त यूरोप व एशिया के नवजागरण की चर्चा की गई।

    चीन, फिलीपीन, जापान, एशियाई देशों के साथ-साथ पूरे विश्व के जागरण को चर्चा द्विवेदी जी ने की। वे जापान को उदाहरण स्वरूप सबके समक्ष रखते हैं, वह कहते हैं, किस प्रकार जापान ने ब्रिटिश उपनिवेश हुए बिना प्रगति की। उन्होंने देश के नवजागरण से भाषा जागरण को जोड़ा। द्विवेदी जी का मानना था कि समाचार-पत्र, पुस्तक, पत्रिकाओं से पूरा राष्ट्र प्रेरणा ले सकता है, इसलिए उन्होंने हिन्दी नवजागरण हेतु 'सरस्वती' पत्रिका को साधन बनाया था और भी बहुत से प्रेरक तत्त्वों ने नवजागरण हेतु महत्त्वपूर्ण कार्य किए, जिनमें से कुछ प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं

    • अंग्रेज़ों का भारत आगमन
    • पाश्चात्य विद्वानों का अनुवाद कार्य
    • सुधारवादी आन्दोलन
    हिंदी नवजागरण pdf

    हिन्दी नवजागरण की प्रमुख विशेषताएं 

    1. स्वातंत्र्य-चेतना का जाग्रत होना: हिन्दी नवजागरण की सबसे प्रमुख विशेषता हिन्दी-प्रदेश की जनता में स्वातंत्र्य-चेतना का जाग्रत होना था।
    2. राष्ट्रप्रेम का भाव - हिन्‍दी नवजागरण से भारतवासियों के मन में राष्ट्रीयता की भावना का उदय हुआ।
    3. जनवादी विचारधारा - नवजागरण के फलस्‍वरूप साहित्य में मनुष्य की एकता, समानता, और भाईचारे का भाव आया।
    4. हास्य-व्यंग्य की प्रधानता: रचनाकारों ने अपनी रचनाओं हास्य-व्यंग्य में लिखी।
    5. प्राकृति-वर्णन: इसके प्रभास से कवियों ने अपने काव्य में प्रकृति को विषय के रूप में लिया है।
    6. गद्य एवं अन्य विधाओं का विकास: इस समय गद्य और उसकी अन्य विधाओं का विकास हुआ। 
    7. छंद-विधान की नवीनता: भारतेंदु ने ग्राम्य छंदों-कजरी, कहरवा, ठुमरी, लावनी और चैती आदि को अपनाने पर ज़ोर दिया।
    8. भारतीय संस्कृति का गौरवगान: भारतीय सभ्यता और संस्कृति की तारीफ़ की जाने लगी।
    यह भी देखें 👇