अस्तित्ववाद क्या है? एक दर्शनशास्त्र की धारणा है, जो व्यक्तियों के स्वतंत्रता, विकल्प, और अस्तित्व के अर्थ पर केंद्रित है। यह धारणा यह मानती है कि जीवन का कोई पहले से निर्धारित उद्देश्य या अर्थ नहीं होता, और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जिंदगी का अर्थ और उद्देश्य स्वयं ही बनाना होता है।
अस्तित्ववाद के प्रमुख विचारक जैसे कि सॉरेन कीर्कगार्ड, फ्रेडरिक नीत्शे, जीन-पॉल सार्त्र और अल्बर्ट कैमू ने इस विचारधारा को विस्तारित किया है।
अस्तित्ववाद क्या है?
अस्तित्ववाद एक मानवतावादी दर्शन है जिसके प्रवर्तक सोरेन किकेंगार्ड (1813-55) थे। इनके अतिरिक्त जर्मनी के विद्वान् नीत्शे, हेडेगर, जेस्पर्स एवं फ्रांस के विद्वान् मार्शल, सात्र एवं अल्बर्ट कामू आदि हैं, जो अस्तित्ववादी दार्शनिक है।
अस्तित्ववाद (Existentialism) का अर्थ और परिभाषा
अस्तित्ववाद का तात्पर्य यह है कि मानव न तो पूर्णतया निश्चित तथा व्यवस्थित है और न हो सर्वथा दुर्व्यवस्थित है अस्तित्ववादी जब यह कहता है कि मानव की स्वतन्त्रता के अनेक अर्थ बोधक हैं तो इसका तात्पर्य मात्र इतना ही है. कि व्यक्ति की स्वतन्त्रता किस दिशा में प्रवाहित होगी? इसका पूर्व निर्धारण सम्भव, नहीं है। हर व्यक्ति को हर स्थिति में यह स्वयं तय करना पड़ेगा। मानव अपनी चेतना के साथ ही अस्तित्ववान रह सकता है, अन्य वस्तुएँ नहीं इसलिए मानव अस्तित्ववाद की केन्द्रीय विषय-वस्तु है।
मनुष्य के सारे विचार एवं सिद्धान्त उसके चिन्तन का परिणाम है। तात्पर्य यह है कि मानव पहले अस्तित्व में आए तत्पश्चात् उसके विचार एवं सिद्धान्त। इस प्रकार व्यक्ति का अस्तित्व ही मुख्य है। स्पष्ट है कि अस्तित्त्ववाद मानव की सत्ता को स्थापित करना चाहता है। हर मानव अद्वितीय है, मानव के अतिक्ति कोई अद्वितीय नहीं है। मानव के अतिरिक्त अन्य को तो सामान्य समझा जा सकता है, परन्तु मानव को नहीं।
मानव के सन्दर्भ में कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, जो समस्त मानवों पर समान रूप से लागू हो, क्योंकि मानव, व्यक्ति, अन्य तथा वस्तुओं को अपने अनुरूप ढालने की चेष्टा नहीं करता, बल्कि अन्य तथा वस्तुओं के अनुरूप वह अपनी व्यक्तिकता का निर्माण करता है। अन्य तथा वस्तुओं के अनुरूप वह अपने व्यक्तित्व का कैसा निर्माण करेगा यह निश्चित नहीं है और यही बात उसे अन्य से अलग करके विशेष बना देती है। सात्र अस्तित्व की अनुभूति को ही जीवन का चरम सत्य मानते हैं। मानव को सर्वप्रथम अपने अस्तित्व की अनुभूति होती है तथा बाद में अनुभूति के अनुरूप वह अपने को जीवन की योजनाओं में लगा देता है।
मनुष्य अपनी रुचि के चुनाव में अपने निर्णयों में पूर्ण स्वतन्त्र है। अपनी परिस्थित्तियां वह स्वयं निर्मित करता है। वह अपने किसी भी कार्य के लिए अन्य सत्ता के प्रति उत्तरदायी नहीं है। अस्तित्ववाद, अतीत और भविष्य के स्थान पर केवल वर्तमान में विश्वास करता है। वह, वर्तमान क्षण की अनुभूति को भविष्य कौ कल्पनाओं से अधिक महत्व देता है। वह परम्परागत चिन्तन, सामाजिक मूल्यों, नैतिक विचारों को ही नहीं अपितु वैज्ञानिक तर्क प्रणाली को भी अस्वीकार करता है। अस्तित्ववादी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते।
सार्ज कहता है कि ईश्वर मर चुका है। अस्तित्ववादी परम्परागत विश्वासों, आस्था, नैतिक नियमों आदि के विरोधी हैं। वे ईश्वर परलोक, आत्मा, परमात्मा, पूर्वजन्म, भाग्य, पाप, पुण्य इत्यादि की सत्ता को स्वीकार नहीं करते।
अस्तित्ववाद केवल व्यक्ति की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करता है। इनकी मान्यता है कि हर व्यक्ति की अपनी स्वतन्त्र दृष्टि होती है। उसी के अनुरूप वह प्रतिक्रिया करता है। व्यक्ति के जीवन का मुख्य लक्ष्य सुख, वैभव, शान प्राप्त करना है। व्यक्ति के मापदण्ड इसी पर होते हैं कि उसने मानवता को कितना सुख प्रदान किया। अस्तित्ववादी दूसरों के विचारों व सिद्धान्तों पर चलने के विरुद्ध है, क्योंकि इससे मानव की स्वच्छन्दता चाचित होती है।
अस्तित्ववाद के जनक है?
अस्तित्ववाद के जनक के रूप में सोरेन कीर्केगार्ड और फ़्रेडरिक नीत्शे इन दोनों का नाम लिया जाता है।
सोरेन कीर्केगार्ड -
- सोरेन कीर्केगार्ड एक डेनिश दार्शनिक थे।
- उन्होंने ईसाई अस्तित्ववाद की स्थापना की थी।
- उन्होंने सत्य की व्यक्तिपरक प्रकृति पर ज़ोर दिया।
- उन्होंने व्यक्तिगत पसंद के महत्व और विश्वासों के प्रति भावुक प्रतिबद्धता पर ज़ोर दिया।
- उनकी रचनाएं 'फ़ियर एंड ट्रेम्बलिंग' और 'द सिकनेस अनटू डेथ' अस्तित्ववादी विचारों को प्रभावित करती हैं।
फ़्रेडरिक नीत्शे -
- नीत्शे को अस्तित्ववाद का जनक माना जाता है.
- नीत्शे के लेखन ने यूरोप और उसके बाहर अस्तित्ववादी आंदोलन के प्रसार को प्रेरित किया।
- नीत्शे को 'बियॉन्ड गुड एंड एविल' में उनके प्रसिद्ध दावे के लिए जाना जाता है, जहां उन्होंने लिखा है कि 'ईश्वर मर चुका है।'
अस्तित्ववाद की मान्यताएं
अस्तित्ववादी सामान्यतः तीन मूल्यों को स्वीकार करते हैं
- दुःख व पीड़ा अस्तित्व की अनुभूति के लिए अनिवार्य आधार है अर्थात् दुःखो व पीड़ित हुए बिना हम अपने अस्तित्व को अनुभव नहीं कर सकते।
- दुःख व पीड़ा से मुक्ति पाने का सबसे बड़ा उपाय यह है कि हम उसे स्वीकार कर ले।
- मनुष्य को ऐसा कार्य करना चाहिए कि जिसमें सारी शक्तियाँ लग जाएँ तथा वह अपनी संवेदनाओं को गम्भीरतम रूप से संवेदित कर सके।
वस्तुतः अस्तित्ववाद में व्यक्ति की स्वच्छन्दता का जितना महत्त्व है, उतना ही पीड़ा की स्वीकृति का है। समग्रतः पीड़ा ही अस्तित्व बोध को साधिका है।
पीड़ा की स्वीकृति का एक उदाहरण -
वहन करो ओ मन। वहन करो पीड़ा। यह अंकुर है उस विशाल वेदना की, तुम में भी जन्मजात आत्मजा है स्वीकार करो आँचल से ढक कर रक्षण दो। वहन करो वहन करो पीड़ा ! सृष्टि प्रिया पीड़ा है कल्पवृक्ष दान समझ शीश झुका स्वीकारों ओ मन करपात्री स्वीकारो मधुकरि स्वीकारो वहन करो वहन करो पीड़ा!
इस प्रकार अस्तित्ववाद से ही हिन्दी की प्रयोगवादी एवं नई कविता प्रभावित है। अज्ञेय, मुक्तिबोध, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती, शान्ता सिन्हा, भारतभूषण अग्रवाल आदि के काव्य रचनाओं में कुण्ठा, निराशा, पीड़ा, अनास्था, इसी अस्तित्ववादी जीवन दर्शन की देन है। इन लेखकों ने मानव मन की इन्हीं पीड़ाओं को अपने साहित्य में उकेरा है।
अस्तित्ववाद के सिद्धांत
अस्तित्ववाद के मुख्य सिद्धांतों में निम्नलिखित शामिल हैं :
1. स्वतंत्रता और जिम्मेदारी - प्रत्येक व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता का अहसास होता है, और उसी स्वतंत्रता के साथ उसे अपनी ज़िम्मेदारी भी निभानी होती है।
2. अर्थ का निर्माण - जीवन का कोई अंतर्निहित उद्देश्य नहीं होता, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को खुद का अर्थ और उद्देश्य खोजने की आवश्यकता होती है।
3. असंगति - जीवन का कोई निश्चित अर्थ नहीं होने के बावजूद, लोग अर्थ और उद्देश्य की खोज में रहते हैं। यह कभी-कभी एक तरह की निरर्थकता का एहसास दिलाता है।
4. अलगाव और आत्मनिर्भरता - अस्तित्ववाद इस विचार को बढ़ावा देता है कि व्यक्ति को अपने अस्तित्व के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार होना चाहिए, बिना किसी बाहरी सिद्धांत या सामाजिक नियमों के दबाव के।
अस्तित्ववाद की धाराएं
अस्तित्ववादी दर्शन की दो मुख्य धाराएं हैं -
- ईश्वरवादी अस्तित्ववाद (आस्थावादी) तथा
- अनीश्वरवादी अस्तित्ववाद (अनास्थावादी)।
1. ईश्वरवादी अस्तित्ववाद (आस्थावादी) अर्थात् आध्यात्मिक, धार्मिक पराभौतिक -
इस धारा में ईसाइयत का प्रभुत्व है में है। इस धारा में ईश्वर केन्द्र में है। मनुष्य की मीमांसा ईश्वर के संदर्भ में ही संभव है। ईश्वरवादी अस्तित्ववाद के अनुसार इस संसार में निरर्थक जीवन को सार्थक तथा सारपूर्ण बनाने के लिए निष्ठा तथा ईश्वर में आस्था अनिवार्य है। मनुष्य की गति ईश्वर की शरण के बिना संभव नहीं।
ईश्वरवादी अस्तित्ववाद के प्रवर्तकों में सोरेन कीर्केगार्ड (1813-55) तथा गेब्रियल मार्सल (1889-1973) के नाम उल्लेखनीय हैं ।
2. अनीश्वरवादी अस्तित्ववाद (अनास्थावाद) -
इस धारा में मनुष्य इस संसार में निस्सहाय है । वह बिल्कुल अकेला है। फ्रेडरिक नीत्शे (1840-1900) के अनुसार ईश्वर की मृत्यु हो चुकी है। ज्यां पाल सार्त्र (1905-80) के कथनानुसार संघर्ष में ही मानव की गति है। जब ईश्वर ही नहीं तो मनुष्य अपने प्रत्येक कर्म के लिए स्वयं उत्तरदाई है।
अनीश्वरवादी अस्तित्ववाद के प्रमुख प्रवर्तकों में मार्टिन हाइडेगर (1889-1978) और ज्यां पाल सार्ज शामिल है ।
अनीश्वरवादी (अनास्थावादी) वर्ग प्रधानता है। इस वर्ग का प्रतिनिधित्व नीत्शे और सार्ज करते हैं। नीत्शे ने कहा था 'ईश्वर मर गया है'। वस्तुतः अस्तित्ववादियों का ईश्वर से उतना बैर नहीं है, जितना धार्मिक, नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों और मान्यताओं से है, क्योंकि ये सभी पूर्व स्थापित मूल्यों एवं मनुष्य की स्वतंत्रता को बाधित करते हैं। सार्ज ईश्वर के अस्तित्व को इसीलिए मिटाना चाहते हैं, ताकि धर्म एवं नीति संबंधी कोई भी मूल्य या आदेश भी ऐसा ना बचे जो मनुष्य के स्वच्छंद एवं सहज चरित्र विकास में बाधक हो।
हिंदी साहित्य में अस्तित्ववाद
अस्तित्ववाद विशुद्ध साहित्यिक प्रवृत्ति या आलोचना सिद्धान्त नहीं है। लेकिन इसने साहित्य को अत्यधिक गहराई से प्रभावित किया । ज्या पाल सार्त्र, सीमोन द बिउआ और अल्बेयर कामू जैसे रचनाकारों ने अस्तित्ववाद से प्रभावित होकर कई श्रेष्ठ कृतियाँ साहित्य को दी हैं। इसके अतिरिक्त, कई अन्य लेखकों को भी इस धारा में समाहित किया जा सकता दोस्तोएवस्की और फ्रांज काफ्का के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
अस्तित्ववाद का प्रभाव रंगमंच पर भी पड़ा, एब्सर्ड नाटक की अवधारणा के मूल में अस्तित्ववादी दर्शन ही है । इस रंगमंच को 'एण्टी-थिएटर' भी कहा जाता है । भुवनेश्वर द्वारा लिखित नाटक 'तांबे के कीड़े' एब्सर्ड नाटक का उत्दृष्ट उदाहरण है ।
हिंदी की नई कविता पर अस्तित्ववाद का गहरा प्रभाव है। धर्मवीर भारती, दुष्यंत कुमार, भारतभूषण अग्रवाल, कुँवर नारायण, अज्ञेय आदि कवियों में अनास्था, अस्तित्वबोध, मृत्यु-बोध, वैयक्तिक स्वच्छंदता, पीड़ा, निराशा, उन्मुक्त भोग आदि अस्तित्ववादी प्रवृत्तियों की अनुगूँज सुनाई पड़ती है ।
धर्मवीर भारती का काव्य-नाटक 'अंधायुग', मोहन राकेश का नाटक 'आधे-अधूरे' अज्ञेय के 'अपने-अपने अजनबी' तथा कुँवर नारायण की 'आत्मजसीय' में अस्तित्ववाद का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है ।
अस्तित्ववाद की प्रमुख विशेषताएं
- अस्तित्व पहले, फिर सार - अस्तित्ववादीयों का मानना है कि मनुष्य का अस्तित्व पहले आता है, और बाद में वह अपने जीवन का उद्देश्य खुद बनाता है।
- स्वतंत्रता और जिम्मेदारी - व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता का एहसास होता है, लेकिन वह अपने निर्णयों के लिए जिम्मेदार भी होता है।
- निरर्थकता - जीवन का कोई पूर्वनिर्धारित उद्देश्य नहीं होता, और यह एक निरर्थक संघर्ष जैसा प्रतीत होता है।
- अलगाव और अकेलापन - व्यक्ति को अपनी स्थिति का गहराई से एहसास होता है, जिससे वह कभी अकेलापन महसूस करता है।
- आत्मनिर्भरता - हर व्यक्ति को अपने जीवन का उद्देश्य और दिशा खुद तय करनी होती है।
- जीवन की अस्थिरता और मृत्यु - जीवन अस्थिर और असमाप्त है, और मृत्यु के विचार को स्वीकार करना पड़ता है।
- मूल्यों का निर्माण - व्यक्ति को जीवन में अपने खुद के मूल्य और उद्देश्य का निर्माण करना होता है।
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