खड़ी बोली को 'खरी बोली', 'ठेठ हिन्दी' के रूप में भी जाना जाता हैं, इसके प्रचार-प्रसार ने आधुनिक गद्य को जन्म दिया तथा इसे राजभाषा के रूप में मान्यता भी मिली। खड़ी बोली दिल्ली के आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों में भी बोली जाती है।
इस पोस्ट में हमने वैचारिक पृष्ठभूमि के अंतर्गत खड़ी बोली आंदोलन का समीक्षात्मक वर्णन प्रस्तुत किया है।
खड़ी बोली आन्दोलन
हिन्दी को खड़ी बोली का विकसित रूप माना जाता है। खड़ी बोली या कौरवी का उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश के उत्तरी रूप से हुआ है तथा इसका क्षेत्र देहरादून का मैदानी भाग, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, मेरठ दिल्ली का कुछ भाग, रामपुर, बिजनौर तथा मुरादाबाद है।
14वीं शताब्दी की शुरुआत में अमीर खुसरो ने खड़ी बोली में पहेलियाँ रची और साहित्य लेखन में इसकी शुरुआत की खुसरों को ही खड़ी बोली का जन्मदाता माना जाता है।
खड़ी बोली आन्दोलन में उसकी दोनों विधाओं गद्य व पद्य का विशेष योगदान रहा। खड़ी बोली के विकास के काल में एक राष्ट्र, एक भाषा की बात हो रही थी। हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने के प्रयास जारी थे।
मध्य युग की धार्मिक परिस्थिति ब्रज भाषा के उत्कर्ष में सहायक हुई, तो राजनैतिक परिस्थिति ने खड़ी बोली को प्रोत्साहित किया। खड़ी बोली मुस्लिम वर्ग के साथ, उर्दू के साथ, चारों तरफ व्याप्त हो गई। राजनीति के क्षेत्र में ब्रजभाषा का साहित्यिक महत्त्व घटने लगा।
आधुनिक काल में खड़ी बोली की उन्नति का कारण उसका गद्य रहा, क्योकि यह विशाल क्षेत्र की सम्पर्क भाषा थी, इसलिए इसके गद्य को तीव्र गति से फैलने में अधिक समय नहीं लगा। इस काल का साहित्य जन साधारण की वस्तु बन गया।
सन् 1800 में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई और अंग्रेज़ी के साथ-साथ देशी भाषा के अध्यापन पर भी विचार किया गया, जिससे खड़ी बोली की प्रचुरता बढ़ने लगी। जॉन गिलक्राइस्ट के प्रतिनिधित्व मैं लल्लू लाल जी ने 'प्रेमसागर' और पण्डित सदल मिश्र ने 'नासिकेतोपाख्यान' रचा। मुंशी सदासुखलाल और इंशा अल्ला खाँ का नाम भी शुरुआती रचनाकारों में आता है। इन्होंने खड़ी बोली को आगे बढ़ाने का कार्य किया।
खड़ी बोली के सन्दर्भ में आलोचकों के महत्वपूर्ण कथन
खड़ी बोली के सन्दर्भ में आलोचकों के महत्वपूर्ण कथन निम्नलिखित है:-
आचार्य हजारीप्रसाद दिवेदी के अनुसार - "इस रचना (चंद-छंद बरनन की महिमा) में भाषा में कसावट नहीं होते हुए भी खड़ी बोली गद्य के आरंभिक नमूने अवश्य प्राप्त होते हैं।"
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- "चंद-छंद बरनन की महिमा” खड़ी बोली गद्य की प्रथम रचना सिद्ध होती है। इसकी भाषा प्रचलित तत्सम् शब्दावली से युक्त है।"
आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी के अनुसार - "बोलचाल की भाषा खड़ी बोली की निंदा करना या उसके पुरस्कर्ताओं को लंगूर इत्यादि बनाकर ब्रज भाषा अपना गौरव नहीं बढ़ा सकती।"
रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार - "सरस्वती पत्रिका के माध्यम से खड़ी बोली को कविता और गद्य में समभाव से प्रतिष्ठित करने का ऐतिहासिक श्रेय महावीर प्रसाद दिवेदी को है।"
डॉ बच्चन सिंह के अनुसार - "खड़ी बोली के लिए खड़ी बोली शब्द का प्रयोग संभवतः सबसे पहले लल्लूलाल ने किया।"
खड़ी बोली आन्दोलन के प्रमुख कवि
खड़ी बोली आन्दोलन के प्रमुख कवि व उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं -
1. सदल मिश्र - 'नासिकेतोपाख्यान' सदल मिश्र की रचना है। इनकी रचना पर ब्रजे भाषा का प्रभाव देखने को मिलता है। 'नासिकेतोपाख्यान' में नचिकेता ऋषि की कथा है। इसका मूल यजुर्वेद में तथा कथारूप में विस्तार कठोपनिषद् एवं पुराणों में मिलता है।
2. लल्लू लाल जी - 'प्रेमसागर' के रचनाकार लल्लू लाल जी हैं। यह श्रीमद्भागवत के दुशम स्कन्ध के आधार पर लिखी गई रचना है। क्षेत्रीय भाषा का प्रभाव इन पर भी दिखाई देता है। उनकी यह रचना खड़ी बोली गा की आरम्भिक कृतियों में से एक मानी जाती है।
3. सदासुखलाल - उर्दू-फारसी में सदासुखलाल ने कई पुस्तकें लिखीं। इन्हें 'नियाज' नाम से भी जाना जाता है। इन्होंने 'सुखसागर' नामक ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थ श्रीमद्भागवत का हिन्दी अनुवाद है। खड़ी बोली के प्राराम्भक गद्य लेखकों में उनका ऐतिहासिक महत्त्व है।
4. इंशा अल्ला खाँ - 'रानी केतकी की कहानी' के रचनाकार इंशा अल्ला खाँ हैं। इनकी भाषा में आम बोलचाल का स्वरूप देखने को मिला। रचनाकार की भाषा में हिन्दी का शुद्ध रूप देखने को मिला है। यह कृति हिन्दी की प्रथम गद्य रचना मानी जाती है।
इन सभी लेखकों ने हिन्दी खड़ी बोली गद्य के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। खड़ी बोली के प्रचार-प्रसार में योगदान देने वाली कृतियाँ हैं -
1. भाषायोगवाशिष्ठ - रामप्रसाद निरंजनी
2. इतिहास तिमिर नाशक - राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द'
3. सत्यामृत प्रवाह - श्रद्धाराम फुल्लौरी
4. भाग्यवती (उपन्यास) - श्रद्धाराम फुल्लौरी
यह भी देखें 👇
- लक्ष्मीनारायण लाल :- सिंदूर की होली
- मोहन राकेश :- आधे-अधूरे, आषाढ़ का एक दिन
खड़ी बोली और भारतेन्दु
हिन्दी खड़ी बोली को परिष्कृत करने का श्रेय भारतेन्दु को जाता है। उन्हीं के द्वारा हिन्दी नई चाल में ढली तथा सामान्य जन-जीवन और उसकी समस्याओं से सीधा जुड़ाव हुआ। भारतेन्दुयुगीन साहित्य का हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान माना जाता है। भारतेन्दु युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि गद्य रचना के लिए खड़ी बोली को माध्यम के रूप में अपनाकर युगानुरूप स्वस्थ दृष्टिकोण का परिचय दिया। कालान्तर में लोगों ने भारतेन्दु को शैली अधिक अपनाई।
द्विवेदी जी का खड़ी बोली आन्दोलन में योगदान
खड़ी बोली की प्रतिष्ठित करना, द्विवेदी युग की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है जिसका श्रेय महावीर प्रसाद द्विवेदी को जाता है। द्विवेदी जी के ही अथक प्रयासों से ऐसा सम्भव हो पाया। भारतेन्दु युग तक ब्रज भाषा में काव्य रचना होती थी, परन्तु इस युग में खड़ी बोली में काव्य रचनाएँ लिखी जानी शुरू हुई। ब्रज भाषा की जगह खड़ी बोली को स्थापित करने का कार्य द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' पत्रिका के माध्यम से किया।
द्विवेदी जी का कहना था कि गद्य व पद्य दोनों की भाषा एक होनी चाहिए। इनकी मान्यता थी कि खड़ी बोली काव्य हेतु पूर्णतः उपयुक्त है। इन्होने ग्रियर्सन जैसे विद्वानों के सन्देहों को दूर किया, क्योंकि इन बिद्वानों की मान्यता थी कि खड़ी बोली में काव्य रचना सम्भव नहीं है। द्विवेदीयुगोन काव्य इस शंका को दूर करने में समर्थ हुआ। हिन्दी खड़ी बोलों आन्दोलन को लोकप्रिय बनाने में भारतेन्दु, मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचन्द आदि साहित्यकारों ने विशेष योगदान दिया व महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल जैसे विद्वानों ने इसे व्याकरण शुद्ध मानक रूप दिया।
खड़ी बोली हिंदी को किसने क्या कहा?
साहित्यकार का नाम | खड़ी बोली हिंदी को क्या कहा? |
---|---|
चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ | मलेच्छ भाषा |
जॉन गिलक्राइस्ट | टकसाली भाषा |
ग्रियर्सन और गिलक्राइस्ट | वर्नाक्युलर हिन्दुस्तानी |
दयानंद सरस्वती | आर्य भाषा |
राहुल संकृत्यायन और भोलानाथ तिवारी | कौरवी भाषा |
सुनीतिकुमार चटर्जी | जनपदीय भाषा |
ग्रियर्सन | गवाँरु भाषा |
प्लेटस | वल्गर भाषा |
भारतेंदु | मर्दानी भाषा |
खड़ी बोली की विशेषताएँ
- खड़ी बोली आकार बहुला बोली है। इसमें अधिकांशतः आकारान्त शब्दों का प्रयोग होता है; यथा-माता, पिता, हथौड़ा आदि।
- खड़ी बोली में बहुधा द्वित्व व्यंजनों का प्रयोग किया जाता है; जैसे-करत्ता, बेट्टा, गाड्डी आदि।
- खड़ी बोली में मूर्धन्य 'ल' का प्रयोग मिलता है, जिसका मानक हिन्दी में अभाव है; जैसे-बाल, जंगल आदि।
- खड़ी बोली में मानक हिन्दी के न, भ के स्थान पर क्रमशः ण, ब का प्रयोग होता है; जैसे-खाणा, जाणा, आणा, अबी (अभी), कबी (कभी) आदि।
खड़ी बोली आंदोलन के महत्वपूर्ण तथ्य
- खाड़ी बोली को 'हिन्दुस्तानी', 'सरहिन्दी', 'बोल-चाल की हिन्दुस्तानी खड़ी बोली' आदि नाम दिए गए हैं। इसका दूसरा व सही नाम 'कौरवी' है। यह वहीं प्रदेश है, जिसे पहले कुरु जनपद कहते थे।
- कौरवी या खड़ी बोली रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बुलन्दशहर, सहारनपुर, देहरादून के मैदानी भाग, अम्बाला (पूर्वी भाग) तथा पटियाला के पूर्वी भागों में बोली जाती है।
- खड़ी बोली तथा उसके परिष्कृत रूप मानक हिन्दी में पर्याप्त समानताएँ मिलती है।
- 14वीं शताब्दी में सर्वप्रथम अमीर खुसरो ने इस बोली का प्रयोग किया। 16-17वीं शताब्दी तक हिन्दी साहित्य पर ब्रजभाषा व अवधी का आधिपत्य रहा, परन्तु कालान्तर में खड़ी बोली में हिन्दी साहित्य लिखा जाने लगा, न केवल पद्म में अपितु गद्य में भी खड़ी बोली का प्रयोग हुआ।
- खड़ी बोली के विकास के साथ-साथ हिन्दी साहित्य में गद्य का भी जन्म हुआ। सदल मिश्र, लल्लू लाल, सदासुख लाल आदि ने अपने गद्य में खड़ी बोली का प्रयोग किया। अतः गद्य साहित्य के विविध रूपों में हिन्दी खड़ी बोली ने उल्लेखनीय विकास किया।
- जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा आदि कवियों ने अपने काव्य में खड़ी बोली का ही प्रयोग किया।
- जयशंकर प्रसाद रचित कामायनी खड़ी बोली का प्रसिद्ध महाकाव्य है।
- खड़ी बोली में अतुकान्त पद्य में 'निराला' जी का प्रमुख स्थान है। खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य 'हरिऔध' रचित प्रिय प्रवास है।