हज़ारी प्रसाद द्विवेदी (Hazari Prasad Dwivedi) हिन्दी निबन्धकार, उपन्यासकार और आलोचक थे। वे हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत तथा बाङ्ला भाषाओं के विद्वान थे। उन्हें भक्तिकालीन साहित्य का अच्छा ज्ञान था। सन 1957 में द्विवेदी जी को पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
लेखक परिचय : हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
नाम :- हज़ारी प्रसाद द्विवेदी (Hazari Prasad Dwivedi)
जन्म :- 1907 ई. में
निधन :- 1979 ई. में दिल्ली में
जन्म-स्थान :- आरत दुबे का छपरा, बलिया (उत्तरप्रदेश)
भाषा :- संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, बांग्ला आदि
साहित्य :- इतिहास, संस्कृति, धर्म, दर्शन और आधुनिक ज्ञान विज्ञान की व्यापकता
द्विवेदीजी की प्रमुख रचनाएँ
निबंध संग्रह :- अशोक के फूल (वर्ष 1948), कल्पलता (वर्ष 1951), विचार और वितर्क (वर्ष 1957), विचार प्रवाह (वर्ष 1959), कुटज (वर्ष 1964), आलोक पर्व (वर्ष 1972)
उपन्यास :- बाणभट्ट की आत्मकथा, पुनर्नवा, चारुचंद्रलेख, अनामदास का पोथा
आलोचना – साहित्येतिहास :- सूर साहित्य, कबीर, मध्यकालीन बोध का स्वरूप, कालिदास की लालित्य योजना, नाथ संप्रदाय, हिंदी साहित्य की भूमिका, हिंदी साहित्य का आदिकाल, हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास
ग्रंथ संपादन :- पृथ्वीराजरासो, संदेशरासक, नाथ-सिद्धों की बानियाँ
नाखून क्यों बढ़ते हैं - हजारीप्रसाद द्विवेदी
'नाखून क्यों बढ़ते है', निबंध हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के कल्पलता निबंध-संग्रह में है। कल्पलता निबन्ध संग्रह 1951 ई. में लिखा गया।
'नाखून क्यों बढ़ते है' निबंध की समीक्षा (Nakhun Kyon Badhate Hain)
'नाखून क्यों बढ़ते हैं' हजारीप्रसाद द्विवेदी का एक प्रसिद्ध निबन्ध है। नाखून मनुष्य की आदिम हिंसक मनोवृत्ति का परिचायक है। नाखून बार-बार बढ़ते हैं और मनुष्य उन्हें बार-बार काट देता है तथा हिंसा से मुक्त होने और सभ्य बनने का प्रयत्न करता है। मानव के जीवन में आए दिन अनेक सामाजिक बुराइयों का सामना होता है, सभ्य समाज इसको नियन्त्रित करने का प्रयत्न करता है, साधु-सन्त अपने उपदेशों द्वारा मानव को इन बुराइयों से दूर रहने के लिए सचेत करते रहते हैं। सरकारें भी इन बुराइयों को रोकने के लिए कानून बनाती हैं। उपर्युक्त सभी प्रयत्न एक तरह से नाखून काटने के समान हैं। बुराई को जड़ से खत्म करना तो सम्भव नहीं, लेकिन जो इनमें लिप्त रहते हैं, वे समाज में अपवाद माने जाते हैं।
द्विवेदी जी ने इस आलोचनात्मक निबन्ध में स्पष्ट किया है नाखूनों का बढ़ना मनुष्य की उस अन्ध सहजावृत्ति का परिणाम है, जो उसके जीवन में सफलता ले आना चाहती है तथा नाखूनों को काट देना स्व-निर्धारित आत्म बन्धन है, जो उसे चरितार्थ की ओर ले जाती है। नाखून का बढ़ना मनुष्य के भीतर की पशुता की निशानी है और उसे नहीं बढ़ने देना मनुष्य की अपनी इच्छा है। मनुष्य का अपना आदर्श है। इस निबन्ध के माध्यम से द्विवेदी जी यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि मानव का अपने जीवन में अस्त्र-शस्त्रों को बढ़ने देना मनुष्य के अन्दर पलने वाली बर्बर पशुवृत्ति की पहचान है तथा अस्त्र-शस्त्रों की बढ़ोतरी को रोक देना मनुष्यत्व का अनुरोध तथा मानवता की पहचान तथा उसकी आवश्यकता है। द्विवेदी जी ने इस निबन्ध के माध्यम से नाखूनों को प्रतीक बनाकर व्यंग्य के माध्यम से आज के तथाकथित बाहर से सभ्य दिखने वाले, किन्तु अन्दर से बर्बर समाज पर कटाक्ष किया है।
नाखून क्यों बढ़ते हैं निबंध के महत्त्वपूर्ण बिंदु:
1. यह विचार प्रधान व्यक्तिनिष्ठ निबंध है ।
2. मानवतावादी स्वर प्रमुख।
3. प्राचीनता और नवीनता का समन्वयता ।
4. नाखून का बढ़ना पशुता का प्रतीक है तथा नाखून का काटना मनुष्यता का प्रतीक है।
5. यह निबन्ध ‘कल्पलता’ निबन्ध संग्रह में संकलित है।
नाखून क्यों बढ़ते हैं निबंध से संबंधित प्रश्नोत्तर:
प्रश्न 01. क्यों बढ़ते हैं निबंध के लेखक कौन है।
उत्तर:- हजारी प्रसाद द्विवेदी
प्रश्न 02. नाखून क्यों बढ़ते हैं का प्रकाशन वर्ष हैं।
उत्तर:- 1951।
प्रश्न 03. नाखून किसका प्रतीक माना जाता है?
उत्तर:- नख पशुता का प्रतीक माना जाता है।