काव्य के गुण व दोष : काव्य के सौंदर्य एवं अभिव्यंजना शक्ति को बढ़ाने वाले तत्त्वों को काव्य गुण कहा जाता है तथा इसके विपरित जिस तत्व के कारण काव्य के अर्थ को समझने में बाधा उत्पन्न होती हो उसे काव्य दोष कहते हैं। इस पोस्ट के माध्यम से हम काव्य गुण व दोष के प्रकार के जानेंगे तथा इनकी विद्वानों की परिभाषा के माध्यम से हम काव्य गुण-दोष का जानेंगे।
काव्य गुण
दोषों का विपर्यय ही गुण होते हैं। काव्य जब व्याकरणगत त्रुटि से रहित होता है तथा उसमें सभी विशेषताएँ निहित होती है, तब उसमें शब्द गुण अथवा काव्य गुण होते हैं।
भारतीय काव्य चिन्तन में इसे प्रारम्भिक आचार्यों ने अलंकार के रूप में काव्य गुण वर्णित किया है।
भरतमुनि ने अपने ग्रन्थ नाट्यशास्त्र में दस काव्य दोषों की चर्चा करने के पश्चात् प्रबन्याश्रित दस गुणों की चर्चा की और गुण के सन्दर्भ में मात्र इतना कहा-
"गुणा विपर्ययादोषाम्"
अर्थात् गुण-दोषों के विपर्यय होते हैं। विपर्यय से उनका क्या तात्पर्य था-विपरीत भाव, 'अभावात्मक रूप' या 'अन्यथाभाव' यह स्पष्ट नहीं होता। भरत ने गुण का सम्बन्ध काव्य के सामान्य स्वरूप से स्थापित किया, जैसे उनके इस कथन 'काव्यस्य गुणाः दशैते:' से लक्षित होता है। उन्होंने जिन गुणों का कथन किया, वे इस प्रकार हैं
अर्थस्य च व्यक्तिकदारता च, कान्तिश्च काव्यः गुण दर्शतै।”
काव्य गुण पर सर्वप्रथम विचार करने वाले नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरतमुनि हैं। उन्होंने अपने काव्यशास्त्र में 10 गुणों की चर्चा की।
भामह ने भरत की ही भाँति गुण का उल्लेख काव्य के सामान्य गुण के रूप में किया। इन्होंने अपने ग्रन्थ 'काव्यालंकार' में दो प्रकार के काव्य-गुण वैदर्भ और गौड़ीय का उल्लेख किया है। उन्होंने यह भी कहा है कि विद्वान् वैदर्भ काव्य को श्रेष्ठ मानते हैं और गौड़ीय को उदात्त अर्थ में युक्त होने पर भी वैदर्भों की भाँति श्रेष्ठ नहीं मानते। वामन के अनुसार, गुणों की संख्या 20 है। इसमें 10 शब्द-गुण और 10 अर्थ-गुण हैं।
आनन्दवर्द्धन के अनुसार, गुण रस के नित्य धर्म हैं और रस अंगी हैं और गुण उनके अंग हैं।
मम्मट के अनुसार, आत्मा के शौर्यादि गुणों की भाँति काव्य के प्रधान तत्त्व रस के उत्कर्षकारी और नित्य धर्मों का नाम गुण है। अतः मम्मट गुण के विषय में मानते हैं
- गुण, रस के धर्म हैं।
- वे अचल स्थिर और नित्य हैं।
- वे रस का उत्कर्ष करते हैं।
विश्वनाथ ने मम्मट का अनुकरण करते हुए बताया है कि रस के अंगों में व्याप्त धर्म एवं शौर्य आदि ही गुण हैं।
जगन्नाथ ने गुण को शब्दार्थ का धर्म माना है।
निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि गुण काव्य के उत्कर्ष साधक तत्त्व हैं।
मम्मट, हेमचन्द्र, विश्वनाथ एवं जगन्नाथ आदि प्रभृति विद्वानों ने काव्य के तीन ही गुणों को प्रतिष्ठित किया है, क्योंकि इन तीनों ओज, प्रसाद एवं माधुर्य में काव्य के दसों गुण समाहित हो जाते हैं।
यहाँ हम माधुर्य, ओज एवं प्रसाद गुणों का वर्णन करेंगे।
माधुर्य गुण
माधुर्य शब्द का शाब्दिक अर्थ है-श्रुतिसुखदा, आह्लादकतापूर्ण, आर्द्रता आदि से युक्त।
आचार्य भामह ने इसे इस प्रकार परिभाषित किया है, "श्रव्यं नातिसमस्तार्थ काव्यं मधुरमिष्यते” अर्थात् जिसमें अधिक समस्त पद न हो इस प्रकार का कानों को प्रिय लगने वाला मधुर काव्य ही माधुर्य गुण से युक्त होता है।
मम्मट के अनुसार, चित्त के द्रवीभूत का कारण और शृंगार में रहने वाला जो आह्लादस्वरूपत्व है, वह माधुर्य नामक गुण कहलाता है। शृंगारादि रस आह्लादजनक नहीं आह्लादस्वरूप होते हैं।
विश्वनाथ के अनुसार, "वह भावमय आह्लाद जिससे चित्त द्रवित हो उठे माधुर्य है।" वस्तुतः चित्त का द्रुति रूप आह्लाद जिसमें अन्तःकरण द्रवित हो जाए, माधुर्य कहलाता है।
मम्मट के अनुसार, यह गुण संयोग शृंगार, करुण, विप्रलम्भ शृंगार एवं शान्त रसों में क्रम से बढ़ा हुआ रहता है।
माधुर्य गुण के व्यंजक
इस गुण के व्यंजक वर्ण हैं, ट, ठ, ड और ढ को छोड़कर शेष क से म तक के वर्ण। इस गुण में समास का अभाव या लघु समास होता है; जैसे
कहत लखन सन रामु हृदय गुनि ।”
इसमें वर्णगत एवं रसगत दोनों प्रकार का माधुर्य गुण है।
ओज गुण
ओज गुंण का शाब्दिक अर्थ दीप्ति, तेज, प्रताप आदि होता है। काव्य को पढ़ने अथवा सुनने से मन में ओज, उत्साह, साहस, पौरुष, आवेश आदि का संचार होकर चित्त के विस्तार से उत्पन्न दीप्ति ओज कहलाती है।
आनन्दवर्द्धन से पूर्व ओज गुण के सम्बन्ध में यह मान्यता थी कि इसका सम्बन्ध भाषा की सामासिकता से है और यह प्रसाद गुण के ठीक विपरीत है, किन्तु आनन्दवर्द्धन ने इसको रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स आदि के सहायक धर्म के रूप में वर्णित किया है।
इस गुण की विशेषताएँ हैं समास बहुलता, द्वित्व, रेफ एवं 'ट' वर्ग वर्णों का बाहुल्य; जैसे
गिद्ध लसत कहुँ सिद्ध हसत सुख वृद्धि रसत मन ।।"
प्रसाद गुण
प्रसाद का शाब्दिक अर्थ प्रसन्नता या खिलना होता है अर्थात् जिस काव्य में स्वच्छता, सरलता, सहजग्राह्यता हो, वह प्रसाद गुण युक्त काव्य होता है। इस प्रकार की रचना अनायास ही हृदय में व्याप्त हो जाती है। जिस प्रकार सूखा
ईंधन अग्नि को, स्वच्छ जल में धुले हुए वस्त्र सहसा चित्त को आकर्षित कर लेते हैं, उसी प्रकार जो रचना पाठक के चित्त में सहसा व्याप्त हो जाती है, वह प्रसाद गुण युक्त कहलाती है।
यह गुण सभी रसों में व्याप्त रह सकता है। जब यह गुण वीर, रौद्र आदि रसों में होता है, तब शुष्क ईंधन में अग्नि के समान और जब शृंगार, करुण आदि कोमल रसों में होता है, तब स्वच्छ वस्त्र में जल के समान चित्त में व्याप्त हो जाता है; जैसे-
देखहि भूप महारन धीरा । मनहु वीर रस धरे शरीरा।।”
काव्य दोष
काव्य रचना में भावों की अभिव्यक्ति में बाधा उत्पन्न करने वाले तत्त्व काव्य दोष कहलाते हैं। काव्यशास्त्र चिन्तन परम्परा में दोष के लक्षण एवं स्वरूप के विषय में दो बातें महत्त्वपूर्ण हैं- एक, जो दोष का सम्बन्ध गुण से स्थापित कर दोष के विपर्यस्त रूप में गुण को तथा गुण के विपर्यस्त रूप में दोष को मानती है और दूसरी, वह जो दोष का सम्बन्ध रस से स्थापित कर रस के उत्कर्ष में बाधक तत्त्वों को दोष की संज्ञा देती है।
काव्य दोषों के विषय में सर्वप्रथम उल्लेख भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में मिलता है। इन्होंने दस काव्य दोषों का उल्लेख करते हुए कहा कि इन्हें नाटक के आश्रय से दोष समझना चाहिए तथा इनके विपर्यस्त गुण हैं। विपर्यस्त से उनका वस्तुत: क्या अभिप्राय था 'विपरीत भाव' या 'अभाव' यह तो स्पष्ट नहीं होता, लेकिन उन्होंने इतना अवश्य कहा कि दोषों के सम्बन्ध में किसी को अधिक संवेदनशील नहीं होना चाहिए, क्योंकि संसार का कोई भी पदार्थ गुणहीन अथवा दोषरहित नहीं है।
आचार्य मम्मट का मत भी इस विषय में उल्लेखनीय है। आचार्य मम्मट द्वारा प्रस्तुत काव्य लक्षण “तददोषौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि” में 'अदोष” पद की स्थिति इस तथ्य की द्योतक है कि दोष काव्य का एक विधेयात्मक तत्त्व है।
दोष के भेद
सर्वप्रथम भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र के 17वें अध्याय में दस काव्य दोषों का उल्लेख किया है—अगूढ़, अर्थान्तर, अर्थहीन, भिन्नार्थ, एकार्थ, अभिप्लुतार्थ, न्याय से अपेत, विषम, विसन्धि और शब्दच्युत ।
भामह ने निम्न प्रकार के दोष माने हैं—ग्यारह सामान्य दोष, चार वाणी दोष तथा ग्यारह अन्य दोष। इनके अनुसार ये सभी एक-दूसरे में समन्वित होकर कुल ग्यारह ही रह जाते हैं।
दण्डी ने भी ग्यारह दोषों का उल्लेख किया है। वामन ने भरत की भाँति दस काव्यदोष माने, लेकिन इन्हें शब्द एवं अर्थ में पृथक्-पृथक् विभाजित किया। फलस्वरूप दोष की संख्या बीस हो गई। वामन के अनुसार, दोष शब्दगत एवं अर्थगत हैं—पद दोष, पदार्थ दोष, वाक्य दोष, वाक्यार्थ दोष आदि । आचार्य मम्मट ने काव्य प्रकाश में दोषों का स्पष्ट विवेचन करते हुए तीन प्रकार के दोष बताए हैं
1. शब्ददोष
2. रसदोष
3. अर्थ दोष
इनके अनुसार-
उभयोपयोगिनः स्युः शब्दाद्यास्तेन तेष्वपि सः ।। "
अर्थात् मुख्य अर्थ का अपकर्ष करने वाले तत्त्व दोष कहलाते हैं। काव्य में रस ही मुख्य अर्थ है। अत: रस का अपकर्ष करने वाले तत्त्व दोष हैं, क्योंकि रस की अभिव्यक्ति शक्ति और शब्द का आश्रय लेकर होती है। अतः ये दोष शब्द अर्थ के भी हो सकते हैं।
कुछ कुछ महत्वपूर्ण एवं सर्वमान्य काव्य दोषों का परिचय इस प्रकार है
1. पद दोष
इनकी सूची है— श्रुति कटु, च्युतसंस्कृति, अप्रयुक्त, असमर्थ, निहतार्थ, अनुचितार्थ, दर्थक, अवाचक, अश्लील, सन्दिग्ध, अप्रतीति, ग्राम्, नेयार्थ, क्लिष्ट, अविमृष्ट विधेयांश, विरुद्धमतिकृत। इन दोषों में नेयार्थ तक तेरह दोष पदागत तथा अन्तिम तीन दोष समागत होते हैं।
2. पदार्थ दोष
च्युतसंस्कृति, असमर्थ और निरर्थक को छोड़कर शेष तेरह दोष पदगत होने के अतिरिक्त वाक्यगत भी होते हैं। इन तेरह दोषों में से कुछ दोष पदार्थगत भी होते हैं, जो निम्नलिखित हैं
- श्रुतिकटु कठोर वर्णरूप रसापकर्षक पद श्रुतिकटु कहलाता है। जैसे शृंगार रस के प्रसंग में "ट" वर्ण का प्रयोग एवं उसकी आवृत्ति श्रुति कटु प्रतीत होती है। अतः रस का अपकर्ष करती है।
- च्युतसंस्कृति जो पद व्याकरण के नियम के अनुकूल न हो, वह च्युत संस्कार दोषयुक्त कहलाता है।
- निहितार्थ जो शब्द दोनों अर्थों का वाचक होने पर भी अप्रसिद्ध अर्थ में प्रयुक्त हो।
- निरर्थक केवल पादपूर्ति मात्र के लिए प्रयुक्त “च” आदि पद का प्रयोग निरर्थक होता है।
- अप्रतीत जो शब्द केवल किसी विशेष शास्त्र का पारिभाषिक शब्द है, उसका प्रयोग साधारण रूप से करना अप्रतीत दोष कहलाता है।
- अप्रयुक्त व्याकरण सम्मत लेकिन कवियों द्वारा अनाहत अर्थात् अप्रचलित शब्दों का प्रयोग क्लिष्ट जहाँ अर्थ प्रतीति व्यवधान से हो।
3. वाक्य दोष
ये 21 प्रकार के वाक्य दोष निम्न हैं
उपहतविसर्गता, विसन्धि, अधिकपदता, न्यूनपदता,पतत्प्रकर्षता, प्रतिकूलवर्णता, हत्वृत्तत, कथितपदता, अर्थान्तरैकवाचकता, अनभिहितवाच्यता, संकीर्णता, अक्रमता, अभवन्मतसम्बन्ध, अस्थानपदता, गर्भितता, समाप्तपुनरात्ता, अमतयोग, अस्थानसमासता, प्रसिद्धि विरोध, अमतरार्थता, भग्तप्रक्रमता।
४. रस दोष
विभिन्न रस दोषों का वर्णन निम्नलिखित है
व्यभिचारी भावों, रसों, स्थायी भावों का अपने वाचक शब्द द्वारा कहना (स्वशब्द वाच्यता), अनुभाव और विभाग की कष्ट कल्पना से अभिव्यक्ति, रस के प्रतिकूल विभावादि का ग्रहण करना, रस की बार-बार दीप्ति, रस का अनवसर में विस्तार करना, विच्छेद कर देना, अप्रधान अंग रस का अत्यधिक विस्तार करना, प्रधान अगी) रस को त्याग देना आदि।