प्रगतिवाद क्या है: हिंदी साहित्य में प्रगतिवाद युग का आरंभ १९३६ से १९४३ तक माना जाता है। इसी वर्ष प्रगतिशील लेखक संघ का पहला सम्मेलन लखनउ में हुआ था। जिसकी अध्यक्षता महान लेखक प्रेमचंद ने की थी । इसके बाद साहित्य की विभिन्न विधाओं में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित रचनाएँ हुई। प्रगतिवादी धारा के साहित्यकारों में नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, रांघेय राघव, शिवमंगल सिंह सुमन, त्रिलोचन आदि प्रमुख है।
प्रगतिवाद युग की समय सीमा व आरम्भ
हिंदी साहित्य में प्रगतिवाद युग का आरंभ १९३६ माना गया है। और 1942 इसका अंत होता है। इस प्रकार हिंदी साहित्य में प्रगतिवाद युग की काल अवधि 1936 से 1942 तक रही तथा 1936 से 1943 ई. के बीच के काल की कविता को प्रगतिवादी कविता कहते है।
मार्क्सवादी विचारधारा
मार्क्सवादी विचारधारा का हिंदी साहित्य में प्रगतिवाद के रूप में उदय हुआ। मार्क्सवाद समाज को शोषक तथा शोषित के रूप में देखता है। प्रगतिवादी शोषक वर्ग के खिलाफ शोषित वर्ग में चेतना लाने और उसे संगठित कर शोषण मुक्त समाज की स्थापना की कोशिशों का समर्थन करता है। यह सामंतवाद, पूँजीवाद, धार्मिक संस्थाओं को शोषक के रूप में चिन्हित कर उन्हें उखाड़ फेंकने की बात करता है।
प्रगतिवाद युग के जनक
हिंदी साहित्य के प्रगतिवाद युग के प्रवर्तक या जनक कार्ल मार्क्स को माना जाता है। तथा काव्य की बात की जाए तो प्रगतिवाद युग में काव्य के प्रवर्तक या जनक के रूप में सुमित्रानंदन पंत को माना गया है। राजनीति में जो मार्क्सवाद है, साहित्य में उसे ही प्रगतिवाद के नाम से जाना जाता है।
प्रगतिवाद की अवधारणा
प्रगति का अर्थ है-'आगे बढ़ना' या 'उन्नति'। प्रगतिवाद उन विचारधाराओं एवं आन्दोलनों के सन्दर्भ में प्रयुक्त किया जाता है, जो आर्थिक एवं सामाजिक नीतियों में परिवर्तन या सुधार के पक्षधर हैं। प्रगतिवाद का सम्बन्ध मार्क्सवादी आन्दोलन से है। इस आन्दोलन का प्रवर्तन अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पाश्चात्य देशों में हुआ। 1935 ई. में पेरिस में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई, जिसने साहित्य के माध्यम से समाजवादी विचारों के प्रचार को साहित्यकार का लक्ष्य घोषित किया। इसकी एक शाखा भारतवर्ष में स्थापित हुई। 1936 ई. में लखनऊ में 'भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ' का पहला अधिवेशन हुआ, जिसकी अध्यक्षता मुंशी प्रेमचन्द ने की। मुंशी प्रेमचन्द ने भाषण में घोषित किया कि “साहित्य केवल मनोरंजन की वस्तु नहीं है, उसका लक्ष्य समाज का हित होना चाहिए।" द्वितीय अधिवेशन (1938) की अध्यक्षता डॉ. रबीन्द्रनाथ टैगोर ने की। प्रगतिवाद की परिभाषा किया है कि “राजनीति के क्षेत्र में जो मार्क्सवाद है, वही साहित्य के क्षेत्र में प्रगतिवाद है।"
प्रगतिवादी काव्य की प्रवृत्तियाँ
प्रगतिवादी काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं:-
शोषण का विरोध
प्रगतिवादी काव्य में पूंजीवादी वर्ग के प्रति घृणा का भाव व्यक्त किया गया है। इन कवियों का मानना है कि पूंजीपति वर्ग निर्धनों का रक्त चूसकर खुद सुख की नींद सोते हैं।प्रगतिवादी कवि यह नहीं चाहते कि एक व्यक्ति सुखपूर्ण जीवन बिताए और दूसरा व्यक्ति जीवन की जरूरी आवश्यकताओं के लिए तरसता रहे, इसलिए प्रगतिवादी कवि शोषित वर्ग को अपने अधिकारों के प्रति सचेत करना चाहते हैं। वह शोषितों का शोषकों के विरुद्ध क्रान्ति के लिए आह्वान करते हैं। प्रगतिवादी कवियों ने शोषित और शोषक का तुलनात्मक चित्र प्रस्तुत करके सामाजिक विषमता का उद्घाटन किया है।
समतामूलक समाज का निर्माण
प्रगतिवादी कवि एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं, जहाँ सभी को एक समान माना जाता जाय।
शोषित वर्ग की दयनीय स्थिति का वर्णन
प्रगतिवादी विचारकों का मत है कि शोषक वर्ग निरन्तर किसान, मजदूर व गरीबों का शोषण करके अपने लिए ऐश्वर्यपूर्ण संसाधनों को एकत्रित करता है, किन्तु निम्न वर्ग अत्यधिक श्रम करने के उपरान्त भी अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाता और सदैव अभावग्रस्त जीवन जीने के लिए मजबूर रहता है।
नारी विषयक दृष्टिकोण
प्रगतिवादी कवियों ने नारी के सन्दर्भ में नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। प्रगतिवादी साहित्यकार ने नारी को पुरुष के समकक्ष माना है, उन्होंने नारी को उतने ही अधिकार देने की बात कही है, जितने कि पुरुषों को दिए गए हैं।
यथार्थवादी दृष्टिकोण
प्रगतिवादी साहित्य में यथार्थ को प्रकट किया गया है। प्रगतिवादी लेखक सुन्दर, भव्य एवं औदात्त (महानता) का चित्रण करना उतना आवश्यक नहीं मानता, जितना जीवन के यथार्थ रूप का चित्रण करना।
उपयोगितावाद
प्रगतिवादी आलोचक उसी कृति को साहित्य रचना मानते हैं, जिसका मानव जीवन में अधिक-से-अधिक महत्त्व हो। उनके अनुसार सच्चा साहित्य वह है, जो जन-जीवन को प्रगति के पथ पर अग्रसर करे।
प्रतीक योजना
नवीन दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति के लिए प्रगतिवादी कवियों ने नवीन प्रतीकों को अपनाया है। इन कवियों के काव्य में प्रलय, ताण्डव, मशाल आदि प्रतीक के रूप में प्रयुक्त हुए हैं।
भाषा-शैली
प्रगतिवादी साहित्य का सम्बन्ध जन-जीवन से होने के कारण इस धारा का साहित्यकार सरल एवं स्वाभाविक भाषा-शैली को अपनाने का पक्षपाती है। स्पष्ट, यथार्थ तथा वास्तविक विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए वह सरल, सुबोध एवं व्यावहारिक भाषा का प्रयोग करता है। प्रगतिवादी कवि परम्परागत और प्राचीन छन्दों का बहिष्कार करके नवीन मुक्तक छन्दों की ओर बढ़ता है। यह छायावादी कल्पना से बाहर आकर जन-जीवन को स्पष्ट करने वाला साहित्य है।
क्या आप जानना चाहेंगे :-
प्रगतिवाद के प्रमुख कवि परिचय
नागार्जुन
केदारनाथ अग्रवाल
शिवमंगल सिंह 'सुमन'
त्रिलोचन
केदारनाथ सिंह
राहुल सांकृत्यायन
डॉ॰ रामविलास शर्मा
रांगेय राघव
शिवदान सिंह चौहान
प्रगतिवाद के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ
कवि | रचना |
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सुमित्रानंदन पंत | प्रगतिवादी रचनाएं- युगांत, युगवाणी, ग्राम्या |
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला | प्रगतिवादी कवितायेँ- कुकुरमुत्ता, अणिमा, नए पत्ते, बेला, अर्चना |
नरेन्द्र शर्मा | प्रवासी के गीत, पलाश-वन, मिट्टी और फूल, अग्निशस्य |
माखन लाल चतुर्वेदी | मानव |
रामेश्वर शुक्ल अंचल | किरण-वेला, लाल चुनर |
रामधारी सिंह ‘दिनकर | कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, परशुराम की प्रतीक्षा |
उदयशंकर भट्ट | अमृत और विष |
बालकृष्ण शर्मा नवीन | कुमकुम, अपलक, रश्मि-रेखा |
जगन्नाथ प्रसाद मिलिंद | बलिपथ के गीत, भूमि की अनुभुति, पंखुरियां |
केदारनाथ अग्रवाल | युग की गंगा, फूल नहीं रंग बोलते हैं, लोक तथा आलोक, नींद के बादल |
राम विलास शर्मा | रूप-तरंग |
नागार्जुन | युगधारा, हजार-हजार बांहों वाली, प्यासी पथराई आंखे, तुमने कहा था, तालाब की मछलिया, पुरानी जूतियों का कोरस, सतरंगे पंखों वाली, भस्मासुर |
रांगेय-राघ | अजेय खंडहर, मेधावी, राह के दीपक, पांचाली, पिघलते पत्थर |
शिव-मंगल सिंह ‘सुमन’ | हिल्लोल, जीवन के गान, प्रलय सृजन |
त्रिलोचन | मिट्टी की बात, धरती |
यह भी देखें:-
- हिन्दी साहित्य का इतिहास
- हिन्दी साहित्य का आदिकाल
- हिंदी साहित्य का भक्ति काल (पूर्व मध्यकाल)
- हिंदी साहित्य की निर्गुण ज्ञानमार्गी संत काव्य धारा
- हिंदी साहित्य की निर्गुण प्रेममार्गी (सूफ़ी ) काव्यधारा