निर्गुण ज्ञानमार्गी संत काव्य धारा की विशेषताएँँ, प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाऍं

सन्त काव्यधारा/ज्ञानमार्गी धारा: आज हम निर्गुण काव्‍य धारा के अंतर्गत सन्‍त काव्‍यधारा जिसे ज्ञानमार्गी संत काव्यधारा भी कहा जाता है। हिन्दी साहित्य के सन्त कवियों की ज्ञानाधारित निष्पक्षता, भक्तिभावना, न्यायप्रियता और काव्यधारा को दृष्टिगत कर इसे ज्ञानमार्गी काव्यधारा की संज्ञा दी जाती है। इस संत काव्यधारा के लिए ‘संत काव्यधारा’ और ‘निर्गुण काव्यधारा’ नाम भी दिए गए हैं। भक्तिकाल की विषम राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में आशा की ज्योति बिखेरने का कार्य संत काव्यधारा के कवियों के द्वारा ही किया। उन्होंने तत्कालीन धार्मिक मान्यताओं को अपने जीवन के व्यापक अनुभव के आधार पर जनसामान्य तक पहुचाने का कार्य किया है।

इन काल के कवियों ने हिन्दू और मुसलमान दोनों को समाज के अभिन्न अंग के रूप में मान्यता प्रदान करते हुए उनमें भावात्मक रूप से एकता लाने का प्रयास किया। इन्होंने आपसी विवादों को छोड़कर निर्गुण के आधार पर राम और रहीम को एकाकार करने का अनूठा कार्य किया। सामंती समाज के वर्णवादी मूल्यों के प्रति उनमें जो आक्रोश है उसे मिटाने का प्रसास इस काल के कवियों ने किया है। 

    निर्गुण काव्य में मानवीय अनुभव एवं विवेक को प्रामाणिक माना गया है। इसलिए संत कवियों ने पांडित्य परंपरा और पुस्तकीय ज्ञान के वाद-विवाद को व्यर्थ मानते हैं। उन्होंने साहित्य में लौकिक अनुभूतियों को स्थान दिया। सन्त काव्यधारा का आधार निर्गुण ब्रह्म है। इस धारा को ज्ञानमार्गी धारा कहा जाता है। ‘सन्तशब्द का सामान्य अर्थ 'सज्जन' है।तुलसीदास जी ने सन्त का अर्थ भक्त या हरिभक्त लेते हुए लिखा है कि 'सन्त समागम हरि भजन दुर्लभ दोया

    निर्गुण ज्ञानमार्गी संत काव्य धारा

    सन्त काव्यधारा/ज्ञानमार्गी शाखा की विशेषताऍं

    सन्त काव्यधारा की विशेषताएँ निम्नलिखित है

    1. निर्गुण ब्रह्म का स्वरूप 

    सन्त कवि निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। समाज में व्‍याप्‍त तत्कालीन सामाजिक विकृतियोंजैसे-जातिवादीवर्गवादी और सम्प्रदायवादी विद्रूपताओं को मिटाने के लिए सन्तो ने निर्गुण ब्रह्म को आधार बनाया। ईश्वर को अलग-अलग रूपों एवं वर्गों में बाँटने से मनुष्य के बीच विभेद उत्पन्न होता हैइसलिए सन्तों ने बन्धुत्व और मानवतावादी दृष्टि के आग्रह के कारण इस ब्रह्म को निर्गुण तथा अद्वैतवादी ब्रह्म सिद्ध किया।

    2. सामाजिक समन्वय तथा मानवता

    सन्त काव्यधारा के समक्ष सबसे बड़ी समस्‍या थी।  एक और हिन्दू सम्प्रदाय और उनके बीच व्‍याप्‍त घृणा थीतो दूसरी ओर इस्लामी कट्टरता थी। हिन्दू धर्म के सम्प्रदायों के कारण ही सम्पूर्ण समाज जातियों एवं उपजातियों में वर्गीकृत था, जिसकेे परिणाम स्‍वरूप ही समाज में कुरीतियों ने जन्‍म लिया था । सम्प्रदायों में भी अलग से वैष्णवशैवशाक्त आदि सम्प्रदाय थे।उनमें एक-दूसरे को नीचा दिखाना तथा एक-दूसरे की उपासना पद्धति को निकृष्ट मानने की कुप्रवृत्तियाँ विराजमान थी। सन्तों ने अपने पदों के माध्यम से हिन्दू रूढ़ियों के साथ-साथ इस्लामी कट्टरता की भी आलोचना की तथा समाज की बुराईयों को खत्‍न करने का प्रयास किया। 

    3. शास्त्रीयता एवं रूढ़िवाद का विरोध   

    शास्त्रों के लीकबद्ध तथा दिग्भ्रमित विचारों के कारण ही समाज भी कूपमण्डूकता तथा दिशा भ्रम का शिकार था। सन्त निरक्षर थे। अशिक्षा एवं अन्धविश्वास के कारण ही शास्त्रीय पूर्वाग्रह तथा पण्डिताऊपन द्वारा समाज को भय दिखाकर अपने निजी हित साधने में कुछ लोगों की मात्र सोची-समझी रणनीति होती थी। अन्धविश्वास व अज्ञानता को भेदने के लिए इन सन्त रचनाकारों ने जिस अन्तर्दृष्टि की चर्चा कीवह अपने साथ-साथ जातिगत सच्चाइयों का पता देने वाली रही। इस काल के सन्त कवि सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास नहीं करते थे। सन्तों के समागम (संगत) से जो कुछ सुना उसे ज्यों का त्यों नहीं मानते थेबल्कि अनुभव के आधार पर अर्जित कर सत्यता को स्‍वीकार किया।

    4. साधना पद्धति

    सन्त काव्यधारा में माया को ब्रहा और जीव के बीच में भेदकारी व निषेधमूलक तत्त्व माना है। माया सांसारिक प्रपंचों का पर्याय हैजो जीव को अपने वास्तविक रूप की पहचान नहीं होने देती और वह जन्ममृत्यु तथा कर्मबन्धनास ना रहता है। सन्तों ने माया के दो रूपों की चर्चा की है

        1. सत् माया
        2. असत् माया

    जिसमें सत् माया ब्रह्म से जोड़ने का काम करती है, वही असत् माया सांसारिक प्रपंचा एवं विषम वासनाओं में उलझाकर ईश्वर से विमुख करने का काम करती है। 

    5. रहस्यवाद

    निर्गुण ब्रह्म की साधना की चर्चा रहस्यवाद के अन्तर्गत आती है। जो की इस काल की प्रमुख विशेषता रही है। आचार्य शुक्ल ने कहा है कि जो दर्शन के क्षेत्र में अद्वैत हैवही भावना के क्षेत्र में रहस्यवाद उन्होंने रहस्यवाद को परिभाषित किया कि ज्ञात का अज्ञात के प्रति प्रणय निवेदन ही रहस्यवाद है। रहस्य का शाब्दिक अर्थ गुप्त अथवा छिपा हुआ होता है। निर्गुण ब्रह्म के स्वरूप भी निराकार माना जाता है। अत: इस प्रकार के ब्रह्म को मात्र अनुभूति के माध्‍यम से ही अनुभव किया जा सकता है। इसकी अभिव्यक्ति पूर्णत: सम्भव नहीं है। कविता जब भी ऐसे निर्गुण ब्रह्म की चर्चा करेगीतो वहाँ रहस्यात्मकता उभरकर आएगीक्योंकि ऐसे ब्रह्म की साधना अथवा उसकी अनुभूति सपाट बयानी (स्पष्ट) सम्भव नहीं है। यही कारण है कि सन्तों की कविता में प्रतीकात्मकता तथा उलटबाँसियाँ (रूपान्तरण) मुख्य रूप से दिखाई पड़ती हैं। 

    6. गुरु का महत्व

    निर्गुण ब्रम्हा की उपासना तथा उसकी रहस्यवादी साधना के कारण ही सदगुरु का महत्व बड़ जाता हैजोकि रामनादी स्वरूप के कारण साधना की दुरूहता तो उभरकर आती ही हैसाथ ही जहा के रखरूप को समझना भी आसान नहीं रहता। यही कारण है कि निर्गुण काव्यधारा में सदगुरु की महत्ता है।

    7. शिल्पगत विशेषताएँ एवं भाषा

    इस काल के सन्त कवि निरक्षर थे। केवल एकमात्र सुन्दरदास जी रचनाकार रहेजो साक्षर थे। साक्षर होने के कारण ही इनके पदों में काव्यात्मक गुण सहज ही मिलते हैं। अन्य सन्त रचनाकारों के निरक्षर होने के कारण उनमें काव्यात्मक रूढ़ियाँ नहीं मिलतीइसलिए इनकी काव्यात्मक रचना बेमेल खिचड़ी थी। यह बात भी पूर्णत: सत्य नहीं थीक्योंकि सूक्ष्म अध्ययन किया जाएतो इनकी रचनाओं में अनुभूति की कसौटी अत्यन्त सटीक दिखाई देती है। कुछ हद तक कुछ रसोंछन्दोंअलंकारों को भी इनके पदों में देखा जा सकता है। यायावरी (घुमक्कड़) प्रवृत्ति के कारण इनकी भाषा अनगढ़ तथा पश्चिमी एवं पूर्वी से मिलती दिखाई देती है। इनमें ब्रजअवधीराजस्थानीखड़ीबोलीपंजाबी के तत्त्वों को देखकर ही इनकी भाषा 'पंच मेल खिचड़ी' के रूप में हो गई है।


    संत काव्यधारा के प्रमुख कवि

    रामानन्द

    स्वामी रामानन्द मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के महान सन्त में से एक थे। जिन्‍होनें रामभक्ति की धारा को समाज के प्रत्येक वर्ग तक पहुंचाने का काम किया। वे पहले ऐसे आचार्य थे जिन्होंने उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार किया। उनके बारे में प्रचलित कहावत है कि - द्रविड़ भक्ति उपजौ-लायो रामानंद। अर्थात  उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार करने का श्रेय स्वामी रामानंद जी को ही जाता है। रामानन्‍द ने बैरागी सम्प्रदाय की स्थापना की, जिसे रामानन्दी सम्प्रदाय के नाम से भी जाना जाता है।

    कबीर

    कबीरदास या कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत माने जाते है। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में परमेश्वर की भक्ति के लिए एक महान प्रवर्तक के रूप में उभरे। कबीरदास जी की रचनाओं ने हिन्दी साहित्‍य के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया हैं। जिसका लेखन सिक्खों के आदि ग्रंथ में भी देखने को मिलता है। उनका मत था कि हिन्दू धर्म हो या इस्लाम उन सब से उपर वह निराकार ईश्वर में को मानते थे। उन्होंने सामाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास की निंदा की और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना भी। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही उनके मत से सहमत थे तथा दोनों ही संप्रदाय ने  उनका सहयोग भी किया। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन्हें मस्तमौला कहा।

    रैदास

    गुरु रविदास अथवा रैदास मध्यकाल के भक्तिधारा के एक भारतीय संत थे, जो की चमार जाति से संबंध रखते थे। जिन्होंने जात-पात के कड़ा विरोध किया। रैदास जी को सतगुरु या जगतगुरु की उपाधि दी जाती है। इन्होने रैदासिया अथवा रविदासिया पंथ की स्थापना की और इनके द्वारा लिखे गये कुछ भजन सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब में भी देखने को मिलते हैं

    नानक

    नानक (कार्तिक पूर्णिमा 1469 – 22 सितंबर 1539) सिखों के प्रथम (आदि )गुरु हैं। इनके अनुयायी इन्हें नानक, नानक देव जी, बाबा नानक और नानकशाह नामों से सम्बोधित करते हैं। नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, कवि, देशभक्त, समाजसुधारक और विश्वबन्धु - सभी के गुण समेटे हुए थे। इनकी समाधि स्थल गुरुद्वारा ननकाना साहिब पाकिस्तान में स्थित है।

    दादूदयाल

    दादूदयाल (1544-1603 ई.) हिन्दी के भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख सन्त कवि थे। इनके 52 पट्टशिष्य थे, जिनमें सुंदरदास, गरीबदास, रज्जब और बखना मुख्य हैं। दादू के नाम से ही 'दादू पंथ' चला था। ये अत्यधिक दयालु माने जाते थे। इसी कारण इनका नाम 'दादू दयाल' पड गया। दादू हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी आदि भाषाओं के ज्ञाता थे। इन्होंने शबद और साखी लिखीं। इनकी रचना मे प्रेमभाव से परिपूर्ण है। जात-पाँत के निराकरण, हिन्दू-मुसलमानों की एकता आदि कई विषयों पर इनके पद तर्क-प्रेरित न होकर हृदय-प्रेरित हैं। 

    संत काव्यधारा के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ

     
    कवि रचनाऍं
    नामदेव अभंगपद
    कबीरदास बीजक (साखी, सबद और रमैनी)
    रविदास (रैदास) रविदास (रैदास)
    गुरु नानक जपुजी, असादीवार, रहिरास सोहिला नसीहत नामा
    दादू दयाल सरस और प्रवाहपूर्ण शैली में ज्ञान- भक्तिपरक काव्य-रचना
    सुन्दरदास भक्ति, नीतिपरक कवित्त एवं सवैया
    मलूकदास ज्ञानबोध, अवतार लीला

    निर्गुण ज्ञानमार्गी संत काव्य धारा FAQ :-

    प्रश्‍न: ज्ञानमार्गी या संत काव्य धारा के प्रवर्तक कवि कौन है?
    उत्‍तर: रामचंद्र शुक्ल ने निर्गुण मार्ग के निर्दिष्ट प्रवर्तक कबीरदास को माना है वहीं गणपति गुप्त और रामकुमार वर्मा ने नामदेव को संत काव्य धारा का प्रथम कवि माना हैं।

    प्रश्‍न: संत काव्य धारा के कवि कौन कौन से हैं?
    प्रश्‍न: संत काव्य का प्रधान रस कौन सा है?
    उत्‍तर: संत काव्य में प्रधान रस शांत रस है।